बाधा मुक्त खेती के बड़े उपाय

Big ways of barrier free farming
भारत सरकार ने बाधा मुक्त खेती-किसानी के लिए दो अध्यादेश लागू कर किसानों को बड़ी राहत देने के उपाय किए हैं। अब देश के किसान अपनी फसल को देश की किसी भी कृषि उपज मंडी में बेचने के लिए स्वतंत्र हैं। अभी तक किसान राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित की गईं मंडियों में ही उपज बेचने को बाध्यकारी थे। अब यह बाधा एक अध्यादेश के जरिए दूर कर दी गई है। 
एक अन्य अध्यादेश लागू कर किसानों को अनुबंध खेती की सुविधा दी गई है। किसान अब कृषि-व्यापार से जुड़ी कंपनियों व थोक-व्यापारियों के साथ अपनी उपज की बिक्री का करार खेत में फसल बोने से पहले ही कर सकते हैं। मसलन किसान अपने खेत को एक निश्चित अवधि के लिए किराए पर देने को स्वतंत्र हैं। केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य ; संवर्धन एवं सुविधा और किसान समझौता एवं कृषि सेवा अध्यादेश लागू कर दिए हैं। ये अध्यादेश किसान को फसल के इलेक्ट्रोनिक व्यापार की अनुमति भी देते हैं। साथ ही निजी क्षेत्र के लोग किसान उत्पादक संगठन या कृषि सहकारी समिति ऐसे उपाय कर सकते हैं जिससे इन प्लेटफार्मों पर हुए सौदे में किसानों को उसी दिन या तीन दिन के भीतर धनराशि का भुगतान प्राप्त हो जाए। छह माह के भीतर इन अध्यादेशों को कानूनी रूप दे दिया जाता है तो भारतीय कृषि को नए युग में प्रवेश का रास्ता खुल जाएगा और किसान का आर्थिक रूप से तो सरंक्षण होगा ही खेती-किसानी का ढांचा भी सशक्त होगा। हालांकि बीते छह साल से नरेंद्र मोदी सरकार की यह कोशिश निरंतर बनी हुई है कि किसान की आय दोगुनी हो और खेती उन्नत होने के साथ किसान व गांव आत्ममिर्भर हो। दरअसल इस कोरोना संकट में खेती देश की अर्थव्यवस्था को बचाए रखने के रूप में रेखांकित हुई है इसलिए उसके सरंक्षण के उपाय जरूरी हैं।
पिछले चार माह से चल रहे कोरोना संकट ने अब तय कर दिया है कि आर्थिक उदारीकरण अर्थात पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की पोल खुल गई है और देश आर्थिक व भोजन के संकट से मुक्त है तो उसमें केवल खेती-किसानी का सबसे बड़ा योगदान रहा है। भारत सरकार ने इस स्थिति को समझ लिया है कि बड़े उद्योगों से जुड़े व्यवसाय और व्यापार जबरदस्त मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। वहीं किसान ने 2019-20 में रिकॉर्ड 2919 करोड़ टन अनाज पैदा करके देश की ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था को तो तरल बनाए ही रखा है साथ ही पूरी आबादी का पेट भरने का इंतजाम भी कर दिया है। इस बार अनाज का उत्पादन आबादी की जरूरत से 7 करोड़ टन ज्यादा हुआ है। भारतीय अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में अमत्र्य सेन और अभिजीत बनर्जी सहित थॉमस पिकेटी दावा करते रहे है कि कोरोना से ठप हुई ग्रामीण भारत पर जबरदस्त अर्थ-संकट गहराएगा।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2017-18 के निष्कर्ष ने भी कहा था कि 2012 से 2018 के बीच एक ग्रामीण का खर्च 1430 रुपए से घटकर 1304 रुपए हो गया है। जबकि इसी समय में एक शहरी का खर्च 2630 रुपए से बढ़कर 3155 रुपए हुआ है। अर्थशास्त्र के सामान्य सिद्धांत में यही परिभाषित है कि किसी भी प्राकृतिक आपदा में गरीब आदमी को ही सबसे ज्यादा संकट झेलना होता है। लेकिन इस कोरोना संकट में पहली बार देखने में आया है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पैरोकार रहे बड़े और मध्यम उद्योगों में काम करने वाले कर्मचारी भी न केवल आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं बल्कि उनके समक्ष रोजगार का संकट भी पैदा हुआ है। लेकिन पिछले तीन महीने में खेती-किसानी से जुड़ी उपलब्धियों का मूल्यांकन करें तो पता चलता है कि देश को कोरोना संकट से केवल किसान और पशु-पालकों ने ही बचाए रखने का काम किया है। किसान और पशु-पालकों का ही करिश्मा है कि पूरे देश में कहीं भी खाद्यान्न संकट पैदा नहीं हुआ। यही नहीं जो प्रवासी मजदूर ग्रामों की ओर लौटे उनके लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था का काम भी गांव-गांव किसान व ग्रामीणों ने किया है। वे ऐसा इसलिए कर पाएए क्योंकि उनके घरों में अन्न के भंडार भरपूर थे। इसलिए अब अनुत्पादक लोगों की बजाय उत्पादक समूहों को प्रोत्साहित किया जाना जरूरी है।
इस परिप्रेक्ष्य में अन्नदाता की आमदनी सुरक्षित करने की जरूरत है। क्योंकि समय पर किसान द्वारा उपजाई फसलों का उचित मूल्य नहीं मिल पाने के कारण अन्नदाता के सामने कई तरह के संकट मुंहबाए खड़े हो जाते हैं। ऐसे में वह न तो बैंकों से लिया कर्ज समय पर चुका पाते हैं और न ही अगली फसल के लिए वाजिब तैयारी कर पाते हैं। बच्चों की पढ़ाई और शादी भी प्रभावित होते हैं। यदि अन्नदाता के परिवार में कोई सदस्य गंभीर बीमारी से पीड़ित है तो उसका इलाज कराना भी मुश्किल होता है। इन वजहों से उबर नहीं पाने के कारण किसान आत्मघाती कदम उठाने तक को मजबूर हो जाते हैं। यही वजह है कि पिछले तीन दशक से प्रत्येक 37 मिनट में एक किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहा है। इसी कालखंड में प्रतिदिन करीब 2052 किसान खेती छोड़कर शहरों में मजदूरी करने चले जाते हैं। इसलिए खेती-किसानी से जुड़े लोगों की गांव में रहते हुए ही आजीविका कैसे चलेए इसके पुख्ता इंतजाम करने की जरूरत है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी वृद्धि की थीए इसी क्रम में श्प्रधानमंत्री अन्नदाता आय सरंक्षण नीतिश् लाई गई थी। तब इस योजना को अमल में लाने के लिए अंतरिम बजट में 75,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। इसके तहत दो हेक्टेयर या पांच एकड़ से कम भूमि वाले किसानों को हर साल तीन किश्तों में कुल 6000 रुपए देना शुरू किए गए थे। इसके दायरे में 14.5 करोड़ किसानों को लाभ मिल रहा है। जाहिर है किसान की आमदनी दोगुनी करने का यह बेहतर उपाय है। बीते कुछ समय से पूरे देश में ग्रामों से मांग की कमी दर्ज की गई है। निसंदेह गांव और कृषि क्षेत्र से जुड़ी जिन योजनाओं की श्रृंखला को जमीन पर उतारने के लिए 143 लाख करोड़ रुपए का बजट प्रावधान किया गया है उसका उपयोग अब सार्थक रूप में होता है तो किसान की आय सही मायनों में 2022 तक दोगुनी हो पाएगी। इस हेतु अभी फसलों का उत्पादन बढ़ानेए कृषि की लागत कम करनेए खाद्य प्रसंस्करण और कृषि आधारित वस्तुओं का निर्यात बढ़ाने की भी जरूरत है। दरअसल बीते कुछ सालों में कृषि निर्यात में सालाना करीब 10 अरब डॉलर की गिरावट दर्ज की गई है। वहीं कृषि आयात 10 अरब डॉलर से अधिक बढ़ गया है। इस दिशा में यदि नीतिगत उपाय करके संतुलन बिठा लिया जाता हैए तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था देश की धुरी बन सकती है।
केंद्र सरकार फिलहाल एमएसपी तय करने के तरीके में ‘ए-2’ फॉमूर्ला अपनाती है। यानी फसल उपजाने की लागत में केवल बीज, खाद, सिंचाई और परिवार के श्रम का मूल्य जोड़ा जाता है। इसके अनुसार जो लागत बैठती है उसमें 50 फीसदी धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य तय कर दिया जाता है। जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है कि इस उत्पादन लागत में कृषि भूमि का किराया भी जोड़ा जाए। इसके बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली 50 प्रतिशत धनराशि जोड़कर समर्थन मुल्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। फसल का अंतरराष्ट्रीय भाव तय करने का मानक भी यही है। यदि भविष्य में ये मानक तय कर दिए जाते हैं तो किसान की खुशहाली और बढ़ जाएगी। एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय आयोग ने भी वर्ष 2006 में यही युक्ति सुझाई थी। अब सरकार खेती-किसानी डेयरी और मछली पालन से जुड़े लोगों के प्रति उदार दिखाई दे रही हैए इससे लगता है कि भविष्य में किसानों को अपनी भूमि का किराया भी मिलने लग जाएगा। इन वृद्धियों से कृषि क्षेत्र की विकास दर में भी वृद्धि होने की उम्मीद बढ़ेगी। वैसे भी यदि देश की सकल घरेलू उत्पाद दर को दहाई अंक में ले जाना है तो कृषि क्षेत्र की विकास दर 4 प्रतिशत होनी चाहिए। खेती उन्नत होगी तो किसान संपन्न होगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था समृद्ध होगी। इसका लाभ देश की उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था को भी मिलेगा।

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