पारदर्शी लोकतंत्र की ओर बड़ा कदम

Big steps towards transparent democracy

आखिरकार लोकपाल की नियुक्ति हो ही गई। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मोदी सरकार ने उच्चस्तरीय भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए इस बहुप्रतीक्षित निर्णय को लागू कर दिया। मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के आखिरी समय में लोकपाल की नियुक्ति कर विपक्ष के हाथ से बड़ा मुद्दा छीन लिया है। इससे न केवल चुनावी मैदान ने विपक्ष की धार कुंद होगी बल्कि भाजपा को फायदा भी मिल सकता है। लोकपाल प्रधानमंत्री से लेकर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी तक के खिलाफ भष्टाचार के मामले की सुनवाई कर सकता है। हालांकि सेना को लोकपाल के दायरे से दूर रखा गया है। वैसे तो देश में भ्रष्टाचार निरोधक संस्था स्थापित करने की कवायद पिछले 50 साल से चल रही थी। लेकिन लोकपाल की निुयक्ति में देरी पर देरी होती रही। जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष देश के पहले लोकपाल होंगे। पी. सी. घोष वर्ष 2017 में सुप्रीमकोर्ट से सेवानिवृत्त हुए और इस वक्त राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य हैं।

इतिहास के पन्ने पलटे तो सन 1967 के मध्य तक लोकपाल संस्था 12 देशों में फैल गई थी। भारत में भारतीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने प्रशासन के खिलाफ नागरिकों की शिकायतों को सुनने एवं प्रशासकीय भ्रष्टाचार रोकने के लिए सर्वप्रथम लोकपाल संस्था की स्थापना का विचार रखा था। जिसे उस समय स्वीकार नहीं किया गया था। भारत में साल 1971 में लोकपाल विधेयक प्रस्तुत किया गया जो पांचवी लोकसभा के भंग हो जाने से पारित नहीं हो सका। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लोकपाल विधेयक 26 अगस्त 1985 को संसद में पेश किया गया और 30 अगस्त 1985 को संसद में इस विधेयक के प्रारूप को पुनर्विचार के लिए संयुक्त प्रवर समिति को सौंप दिया, जो पारित नहीं हो सका।

पूरे घटनाक्रम में तब परिवर्तन आया जब अगस्त 2011 में समाजसेवी अन्ना हजारे ने रामलीला मैदान में आमरण अनशन शुरू किया तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार को अहसास हो गया था कि अब लोकपाल कानून को टालना नामुमकिन है। खैर, संप्रग सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम महीनों में इसे कानून का रूप दिया और एक जनवरी, 2014 को यह राजपत्र में अधिसूचित भी हो गया। इसके बाद 16वीं लोकसभा के चुनाव हो गये और अब यह नरेन्द्र मोदी सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह लोकपाल संस्था की स्थापना करे। ऐसा नहीं होने पर मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा जहां अप्रैल, 2017 को इसे लागू करने के बारे में फैसला भी सुनाया गया। इसके बावजूद इसकी प्रक्रिया ने गति नहीं पकड़ी थी। बहरहाल, लोकपाल की नियुक्ति के मामले में अवमानना याचिका दायर होने पर उच्चतम न्यायालय ने सख्त रुख अपनाया और इसका नतीजा सामने है।

लोकपाल के पास सेना को छोड़कर प्रधानमंत्री से लेकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी तक किसी भी जन सेवक (किसी भी स्तर का सरकारी अधिकारी, मंत्री, पंचायत सदस्य आदि) के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत की सुनवाई का अधिकार होगा। साथ ही वह इन सभी की संपत्ति को कुर्क भी कर सकता है। विशेष परिस्थितियों में लोकपाल को किसी आदमी के खिलाफ अदालती ट्रायल चलाने और 2 लाख रुपये तक का जुमार्ना लगाने का भी अधिकार होगा। भारत में ओम्बुड्समैन को लोकपाल के नाम से जाना जाता है। फिनलैंड में 1918 में, डेनमार्क में 1954 में, नार्वे में 1961 में और ब्रिटेन में 1967 में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए लोकपाल की स्थापना की गई। विभिन्न देशों में लोकपाल को विभिन्न नामों से जाना जाता है। इंगलैंड, डेनमार्क और न्यूजीलैंड में इसे संसदीय आयुक्त, सोवियत संघ में ‘वक्ता’ अथवा प्रोसिक्यूटर के नाम से जानते हैं।

ये कहना गलत नहीं होगा कि हमारे देश में बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई जैसे मुद्दे तो राजनीतिक विमर्श पर छाए रहते हैं लेकिन भ्रष्टाचार की बात आते ही सब कन्नी काटने लगते हैं। लोकपाल की मांग और भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई को लेकर जन्मी आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने सत्ता में आने के बाद देश के जिन सबसे भ्रष्ट नेताओं की सूची सार्वजनिक रूप से जारी की थी उन्हीं के साथ वे चुनावी गठबंधन करने के लिए लार टपका रहे हैं। केवल वे ही नहीं तो भ्रष्टाचार अब कांग्रेस और भाजपा सहित किसी भी पार्टी के लिए अछूत नहीं रहा।

ऐसे में ये पक्का विश्वास कर लेना कि लोकपाल की नियुक्ति मात्र से रामराज भारत की धरती पर उतर आएगा, सही नहीं है क्योंकि अतीत में भी ऐसे ही आशावाद निराश कर चुके हैं। ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि लोकपाल रुपी संगठन पर भी जनता निगरानी बनाये रखे। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश में अब ऐसी व्यवस्था कायम हो सकेगी जो नेताओं और नौकरशाहों के कदाचार पर अंकुश लगायेगी। साथ ही जनता सही मायनो में राहत महसूस कर सकेगी। यह भी विश्वास किया जाना चाहिए कि लोकपाल की प्रभावी भूमिका राज्यों में लोकायुक्त की कार्यप्रणाली की विसंगतियों से मुक्त होगी। बहरहाल हालिया घटनाक्रम को पारदर्शी लोकतंत्र के लिये शुभ संकेत तो माना ही जा सकता है। लोकपाल की नियुक्ति पारदर्शी लोकतंत्र की ओर बड़ा कदम है।

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