छोटी मुलाकात के बड़े संकेत

Big signs of small meeting

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के नेता किम जोंग उन की ताजा मुलाकात को कोरियाई प्रायद्वीप में शांति स्थापना के लिए अहम कदम माना जा रहा है। दोनों नेताओं के बीच यह तीसरी मुलाकात है। इससे पहले ट्रंप व किम जून 2018 में सिंगापुर व इसी साल फरवरी में वियतनाम की राजधानी हनोई में मिले थे। हालांकी हनोई वार्ता नाकाम रही थी। वार्ता के विफल होने के बाद जिस तरह से किम ने आक्रामक प्रतिक्रिया दी उसे देखते हुए इस बात की संभावना कम थी कि दोनों नेता पांच माह के भीतर ही दुबारा मेल-मुलाकात को राजी हो जांएगे।

उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के डिमिलिटरीकृत क्षेत्र (डीएमजेड) में डोनाल्ड ट्रंप व किम जोेंग तकरीबन 50 मिनट तक साथ रहे। इस दौरान दोनों नेताओं के बीच किन मुद्दों पर चर्चा हुई इसका कोई सूत्र अभी तक सामने नहीं आया है। लेकिन इस बात के कयास हैं कि दोनों नेता परमाणु मुद्दे पर आगे बातचीत के लिए तैयार हो गए हंै। केवल समय और जगह का औपचारिक ऐलान होना बाकी है। यहां प्रश्न यह उठता है कि हनोई वार्ता की विफलता से तमतमाए किम इतनी जल्दी दोबारा टंÑप से मिलने को क्योंकर तैयार हो गए, वो भी महज ट्विट पर आए निमंत्रण पर। ट्रंप ने जी-20 देशों के शिखर सम्मेलन के बाद दक्षिण कोरिया रवाना होने से पहले ट्विट कर किम से मिलने की इच्छा जाहिर की। किम ने भी सकारात्मक रूख अपनाया और ट्रंप से मिलने दौड़े चले आए।

निसंदेह यह नाटकीय मुलाकात परमाणु निरस्त्रीकरण की दिशा में एक अहम कदम होगी लेकिन निकट भविष्य में इसका कोई परिणाम आएगा इसकी संभावना कम ही है। बीते साल भी जब ट्रंप और किम की सिंगापुर में ऐतिहासिक मुलाकात हुई तो उस वक्त भी दोनों नेताओं ने कोरियाई प्रायद्वीप में पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रति प्रतिबद्वता जाहिर की थी लेकिन यह नहीं बताया था कि इसके लिए रोडमैप क्या होगा। मुलाकात के बाद जारी सिंगापुर घोषणा में किम ने जहां पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए प्रतिबद्वता जताई, तो वहीं बदले में अमेरिका ने उत्तर कोरिया को सुरक्षा की गांरटी दी।

जिस तरह से सिंगापुर में अतीत की कड़वाहट भूलाकर ट्रंप और किम एक दूसरे से बार-बार हाथ मिला रहे थे उससे इस बात की उम्मीद की जाने लगी थी कि सिंगापुर दस्तावेज में उल्लेखित शब्द देर-सवेर व्यवहारिक रूप लेंगे। उस वक्त भी लेखक ने इस पर संदेह प्रकट किया था कि सिंगापुर घोषणा अस्पष्ट और कूटनीतिक शब्दावली वाली डील है, जिसमें दोनों पक्षों की ओर से ऐसा कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिया गया था, जिसका मूर्त रूप से आंकलन किया जा सके। डील पर संदेह के कई कारण थे । प्रथम, किम निशस्त्रीकरण की प्रक्रिया को सैद्धातिंक तौर पर तो स्वीकार करने के लिए तैयार थे, लेकिन प्रश्न यह था कि इसे व्यावहारिक रूप में कैसे लागू किया जाएगा। किम शुरू से ही शांति प्रक्रिया को पश्चिमी देशों से आने वाले व्यापार व निवेश से जोड़कर देखते रहे हंै, जबकि डील में ट्रंप ने प्रतिबंधों को हटाने व उसमें ढील दिये जाने जैसी कोई बात नहीं की थी।

प्रतिबंधों के बारे में ट्रंप ने केवल इतना ही कहा कि जब यह सुनिश्चित हो जाएगा कि उत्तर कोरिया ने परमाणु मिसाइलों को नष्ट कर दिया है, तो प्रतिबंध हटा लिए जाएंगे। यानी किम के प्रोत्साहन व उत्तर कोरिया की पहल के लिए उस वक्त डील में कुछ नहीं था। द्वितीय, डील में परमाणु हथियारों को नष्ट किए जाने की कोई समय सीमा नहीं थी और न ही यह स्पष्ट किया गया था कि उत्तर कोरिया अपनी मिसाइल कार्यक्रम का परित्याग किस सीमा तक करेगा । डील पर एक प्रश्न यह भी उठ रहा था कि अमेरिका ने उत्तर कोरिया को सुरक्षा का जो भरोसा दिलाया है, उस भरोसे का आधार क्या था। हालांकी उसने दक्षिण कोरिया के साथ सांझा सैन्य अभ्यास रोक देने के संकेत जरूर दिये थे। दोनों नेताओं के बीच वार्ता के बाद करार के जिस स्वरूप पर हस्ताक्षर किए गए थे, वह लक्ष्य से कोसों दूर था।

हनोई की असफल बैठक के बाद दोनों नेता बदले हुए मूड में नजर आए। दोनों ने एक बार फिर हाथ मिलाया है। दोनों ने एक-दूसरे के सम्मान में कशीदे पढ़े। ट्रंप ने कहा कि यह दुनिया के लिए महान दिन है, यह दुर्भाग्यपूर्ण अतीत को खत्म करने और एक नया भविष्य खोलने की किम की इच्छा की अभिव्यक्ति है। उन्होेंने किम को अमेरिका आने का न्यौता भी दिया। हालांकी यह मुलाकात सिर्फ हाथ मिलाने तक सीमित रहनी थी लेकिन जब दोनों नेता फ्रीडम हाउस में साथ बैठे तो बैठक तकरीबन एक घंटे तक चली। उत्तर कोरिया की जमीन पर कदम रखकर ट्रंप ने ना सिर्फ इतिहास बनाया है, बल्कि एक ऐसे देश की अवधारणा को बदलने की कोशिश की है जिसने बरसों तक अमरीका में एक दुश्मन की छवि देखी है। यहां प्रश्न यह उठ रहा है कि ईरान के लिए नित रोज धमकी भरे संदेश प्रसारित करने वाले ट्रंप किम पर मेहरबानी क्यों दिखा रहे हैं। तानाशाहों की गर्दन दबोचने को ललायित अमेरिकी शासकों से इतर का ट्रंप किम को बार-बार मौका दे रहे हंै। इसका अर्थ यह तो नहीं कि अमेरिका ने उत्तर कोरिया को परमाणु हथियारों वाले देश के रूप में स्वीकार कर लिया है। ट्रंप की इस राजनीतिक नौटंकी से क्या दोनों देशों के बीच बन चुकी अविश्वास की खाई पट सकती है।
सिंगापुर घोषणा और हनोई वार्ता कि विफलता के बाद अचानक ऐसा क्या हो गया कि दोनों नेता एक-दूसरे से इस कदर मिलने को बेताब हो गए कि एक ने ट्विट पर निमंत्रण दिया और दूसरा उस निमंत्रण पर दौड़ा चला आया। जबकि हनोई वार्ता की विफलता का बड़ा कारण अब भी दोनों पक्षों के बीच कंक्रीट की दीवार की तरह खड़ा था। उत्तर कोरिया चाहता है कि उसकी व्यापक परमाणु क्षमता के सीमित आंशिक आत्मसमर्पण के बदले अमेरिका प्रतिबंधों में ढील दे। लेकिन ऐसा कोई संकेत अमेरिका ने वार्ता से पहले नहीं दिया ।

ऐसे में माना यह जा रहा है कि ट्रंप और किम दोनों ही परमाणु वार्ता और शांति प्रयासों की आड़ में अपने घरेलू राजनीतिक हितों को पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं। ट्रंप 2020 के अपने राष्ट्रपति चुनाव अभियान की शुरूआत कर चुके है। चुनाव से पहले अगर वे उत्तर कोरिया को परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए तैयार कर लेते हैं तोे यह राष्ट्रपति के रूप में उनकी एक ऐतिहासिक उपलब्धि होगी। उधर किम भी अपनी लिटल मिसाइल मैन की छवि से बाहर आना चाहते हैं। ऐसे में दोनों नेताओं की ताजा मुलाकात को परस्पर हीतों की पूर्ति के एक ऐसे मोर्चे के रूप में देखा जा रहा है, जिसके एक ओर राष्ट्रवाद की भावना से लबरेज डोनाल्ड ट्रंप है तो दूसरी ओर तुनकमिजाजी एवं सनकी शासक किम है।

कोई संदेह नहीं कि इस मुलाकात से पहले दोनों देशों के पास कूटनीतिक तैयारियों के लिए समय नहीं था। जल्दबाजी और हड़बड़ाहट में हुई इस मुलाकात का नतीजा यह रहा कि अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच परमाणु कार्यक्रम को समाप्त करने के लिए अभी भी कोई उल्लेखनीय सहमति नहीं बन पाई है। दोनों नेता बार-बार वार्ता की टेबल तक आते हैं लेकिन खाली हाथ लौट जाते हैं। अगर ट्रंप इन मेल-मुलाकातों से कुछ हासिल करना चाहतें है तो फिर बड़प्पन उन्हें ही दिखाना पडेÞगा। वे जब तक गतिरोध के मूल कारणों को समाप्त नहीं करेगें कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगे। फिर भी ट्रंप और किम कि इस छोटी- सी मुलाकात के कई बड़े संकेत है।

अमेरिका चाहता था कि उŸार कोरिया हमेशा के लिए पूर्ण परमाणु निरस्त्रीरकरण के लिए राजी हो जाए परन्तु किम ने लिबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी और इराक के राष्ट्रपति सदाम हुसैन के उदाहरणों से सिखते हुए उŸार कोरिया के पूर्ण और स्थायी तथा अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप परमाणु निरस्त्रीरकरण के बजाए कोरिया प्रायद्वीप के पूर्ण निरस्त्रीकरण के प्रयास की बात कही। इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिका ने दक्षिण कोरिया की सुरक्षा के लिए जो परमाणु अस्त्र तैनात किए हुए है, उन्हें भी हटाया जाए। कुल मिलाकर समझोते की पालना का दारोमदार अमेरिका पर था। सच तो यह है कि सिंगापुर घोषणा में परमाणु निरस्त्रीकरण को लेकर अनिश्चितंता के वह तमाम तत्व मौजूद थे जो भविष्य में दोनों देशों के बीच कड़वाहट का कारण बन सकते थे। बाद में ऐसा हुआ भी। सिंगापुर घोषणा के महिने-दो महिने के बाद भी दोनों पक्षों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला पुन: शुरू हो गया।

इसके अलावा समझौते में परस्पर विश्वास बहाली की दिशा में आगे बढने के किसी फामूर्ले की बात भी नहीं थी। समझौते की पालना में उŸार कोरिया निरस्त्ररीकरण की दिशा में कोई कदम उठाता भी है, तो ट्रंप सहजता से उस पर विश्वास कर लेते इसमें संदेह था। वात्र्ता से पहले जब उŸार कोरिया ने अपनी परमाणु साइट क्षेत्रों को अंतरराष्ट्रीय मीडिया के सामने नष्ट करने की कार्रवाई की तो ट्रंप ने उŸार कोरिया की इस कार्रवाई को खारीज कर दिया था। ट्रंप का मानना था कि यह केवल दिखावा है, क्योंकि वहां अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को जाने ही नहीं दिया गया।

तृतीय, उŸार कोरिया दोबारा कोई परीक्षण नहीं करेगा इसकी क्या गांरटी है। ऐसी आंशका इसलिए बैजा नहीं थी कि किम जोंग जिस उदेश्य व उम्मीद को लेकर बातचीत की टेबल तक आने के लिए राजी हुए थे वो अभी पूरी नहीं हुई थी। वे अमेरिका के साथ ऐसी डील चाहते थे, जो उनके देश की अर्थव्यवस्था एवं 2.5 करोड़ नागरिकों के हित में हो। लेकिन ट्रंप ने ऐसे कोई संकेत उस वक्त नहीं थे। कुुल मिलाकर सिंगापुर घोषणा देखने ओर सुनने में तो अच्छी जरूर थी लेकिन व्यवहारिकता से कोसों दूर थी। इसका नतीजा यह हुआ कि हनोई वात्र्ता के दौरान भी दोनों नेता कोरिया प्रायदीप की शांति की चिंताओं को ताक पर रख केवल अपने -अपने हितों की पूर्ति करते दिखे। इसका परिणाम यह हुआ कि हनोई वात्र्ता किसी मुकाम तक पहुंचने में असफल रही। राजधानी प्योंगयांग से 3000 किलोमिटर की रेल यात्रा के बाद हनोई पंहुचे किम वात्र्ता की विफलता से इस कदर उखड़े कि उस वक्त उन्होंने वात्र्ता कार्य में लगे अपने पांच अधिकारियों को गोली से उड़वा दिया था।

किम अपनी इस छवि से बाहर निकलना चाह रहे हैं। दूसरा, परमाणु और मिसाइल ताकत हासिल करने के बाद किम जोंग अब अपने आप को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं, उन्हें लगने लगा है कि उन्होंने उत्तर कोरिया के चारों और एक ऐसा मजबूत रक्षा कवच निर्मित कर लिया है जिसे अमेरिका और उसके सहयोगी चाहकर भी नहीं भेद सकेंगे। सामरिक ताकत हासिल करने के बाद अब वह उत्तर कोरिया को आर्थिक ताकत बनाना चाहते हैं, इसके लिए जरूरी है कि अमरिका और यूएनओ द्वारा लगाए गए प्रतिबंध हटे।
-डॉ. एन.के. सोमानी

 

Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करे।