राज पुरोहित का राज्य में बहुत सम्मान था। वह राजा को आवश्यक परामर्श दिया करता था। प्रतिदिन स्वर्ण-मुद्राओं का थाल पुरोहित के सामने रख दिया जाता था जिसमें से वह केवल एक मुद्रा सम्मान-निधि के रूप में स्वीकार कर लिया करता था। एक दिन पुरोहित ने सबकी नजर बचा कर दो मुद्राएं उठा कर जेब में रख लीं। खजांची ने सोचा कि उन्होंने अनजाने में ऐसा किया है।
दूसरे दिन, पुरोहित ने तीन मुद्राएं उठा लीं। यह बात राजा के कानों तक पहुंच गई। तीसरे दिन जब राज पुरोहित ने फिर तीन मुद्राएं उठाई तो यह बात सारे दरबारियों को भी मालूम हो गई। अगले दिन पुरोहित के दरबार में आने पर कोई सम्मान में खड़ा नहीं हुआ। राजा ने पुरोहित से प्रश्न किया, ‘यदि राजा का विश्वासपात्र भी चोरी करे तो उसे क्या दंड दिया जाए?’ पुरोहित ने उत्तर दिया, ‘उसे मौत की सजा दी जानी चाहिए।’
राजा ने फिर पूछा, ‘लेकिन आप जो लगातार तीन दिन से थाल से तीन मुद्राएं चोरी कर रहे हैं, तो आपको क्या सजा दी जाए?’ पुरोहित ने उत्तर दिया, ‘मुझे भी मौत की सजा दी जाए। लेकिन इससे पहले एक रहस्य जान लें। यह मेरा एक प्रयोग था, जिसके द्वारा मैं यह अनुभव करना चाहता था कि मेरा सम्मान मेरे ज्ञान के कारण है या सदाचरण के कारण। अब मुझे समझ में गया कि सदाचरण सबसे ऊपर है। उसके बिना ज्ञान का कोई अर्थ नहीं है। अब आप चाहे जो दंड दें, वह मैं स्वीकार करूंगा।’ राजा ने पुरोहित को क्षमा कर दिया।
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