कोरोना वायरस के दौर में बशीर बद्र का शेर हो रहा सार्थक
गुरुग्राम(संजय मेहरा/सच कहूँ )। कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, ये नए मिजाज का शहर है जरा फासले से मिला करो…। उर्दू शायरी में बड़ा नाम बशीर बद्र का किसी जमाने में लिखा यह शेर आज सटीक बैठ रहा है। कोरोना वायरस के चलते लोगों के बदले व्यवहार ने इस शेर को सार्थक कर दिखाया है। पहले लोग गले मिलते थे, हाथ मिलाते थे। आज इन दोनों से ही परहेज कर रहे हैं। हाथ जोड़कर प्रमाण करके अभिवादन करने लगे हैं। लोगों का मिजाज बदला सा नजर आ रहा है।
- देसी और विदेशियों में गले मिलकर स्वागत करने की परम्परा को कोरोना वायरस का ग्रहण लग गया है।
- वैसे भारत की परम्परा हाथ जोड़कर प्रणाम, स्वागत करने की रही है।
- पौराणिक समय में गुरूकुलों में शिक्षकों द्वारा अपने शिष्यों को हाथ जोड़कर प्रणाम करने की शिक्षा दी जाती थी।
- ऐसा करना संस्कारों में प्रमुख होता था।
- समय के साथ इस परम्परा को जाले लगते गए और कब यह परम्परा लुप्त हो गई, पता ही नहीं चला।
- हाथ जोड़ने की बजाय लोग एक-दूसरे को गले लगाकर, हाथ मिलाकर मिलने लगे। स्वागत करने लगे।
हाथ जोड़कर प्रणाम की संस्कृति को लोग अपनाने लगे
वर्षों पूर्व समाज की कुछ बातों, घटनाओं को कवियों, शायरों, साहित्यकारों ने अपनी कलम से लिखा था, वह आज कहीं न कहीं सत्य साबित हो रही हैं। यहां तक कि पुराने समय में बनी फिल्में भी हमारे आज के समाज पर, व्यवहार पर सटीक बैठ रही हैं। बशीर बद्र के शेर की तरह फिल्म साकी का एक गीत है-पास नहीं आईए-हाथ ना लगाईए, लीजिए नजारा दूर-दूर से, कीजिए इशारा दूर-दूर से…। यह गीत भी ऐसे लगता है जैसे कि आज के हालातों के लिए गाया गया हो। आज हालात ऐसे ही हो चुके हैं। हालांकि फिल्म में इसके मायने अलग हैं। तपाक से गले मिलने वालों से आज कोई गले नहीं मिल रहा और ना ही हाथ मिल रहा है। हाथ जोड़कर प्रणाम की संस्कृति को लोग अपनाने लगे हैं।
भारतीय संस्कृति के हैं साइंटिफिक रीजन
कोरोना वायरस ने गले मिलने वालों में दूरियां बना दी हैं। एक-दूसरे से हाथ मिलाने वालों को दोनों हाथ जोड़ने को मजबूर कर दिया है।
- लोग हाय, हेलो को भूलकर हाथ जोड़कर प्रणाम करने की मुद्रा में आ चुके हैं।
- अमेरिका जैसी सुपरपावर के राष्ट्रपति भी।
- जी हां, अमेरिका के राष्ट्रपति भी अब लोगों को हाथ जोड़कर प्रणाम कर रहे हैं।
- वे भी हाथ मिलाने, गले मिलने की पाश्चात्य संस्कृति (वेस्टर्न कल्चर) को पीछे छोड़ चुके हैं।
- हाथ जोड़ने, पैर छूने की भारतीय संस्कृति सिर्फ एक परम्परा नहीं है, बल्कि इसके वैज्ञानिक कारण भी हैं।
- हालांकि हमारे ग्रामीण अंचल में आज भी राम-राम करने की संस्कृति काफी हद तक जिन्दा है।
नई पीढ़ी को देना होगा संस्कृति का ज्ञान
आज पेरैंट्स अपने बच्चों की सफलता अच्छी अंग्रेजी बोलने, वेस्टर्न कल्चर में ढल जाने को मानते हैं, लेकिन वे गलत हैं। उनकी इस सोच से समाज में पाश्चात्य संस्कृति (वेस्टर्न कल्चर) हावी हो गई है। वे अपनी संस्कृति से दूर हो गए हैं। घर के अधेड़, बुजुर्ग आज की युवा पीढ़ी को बोझ लग रहे हैं। देश में अनाथ आश्रमों, वृद्धाश्रमों की संख्या भी बढ़ रही है। मतलब साफ है कि वेस्टर्न कल्चर में डूबी आज की पीढ़ी को अपने माँ-बाप, दादा-दादी स्टेट्स के हिसाब से जम नहीं रहे।
अब वृद्धाश्रमों, अनाथालयों की भीड़ करें कम
एक बीमारी क्या आई, सबको अपनी संस्कृति समझ आ गई कि हाथ मिलाने में नहीं, हाथ जोड़ने में ही भलाई है। इस हाथ जोड़ने की संस्कृति, परम्परा के साथ अब समय आ गया है अपने-अपने बुजुर्गों को सहारा देकर वृद्धाश्रमों, अनाथालयों से भीड़ कम करने का। हमें अच्छी सीख लेकर घर, परिवार, समाज में एक-दूसरे के सुखों के साथ दुखों को भी सांझा करना चाहिए। यह कड़वी सच्चाई है कि कुछ समय पूर्व जो देश युद्ध की तैयारी कर रहे थे।
एक-दूसरे को परमाणु बम से उड़ाने की धमकी दे रहे थे, आज उन परमाणु शक्तियों को बीमारी के रूप में आए एक वायरस ने हिला कर रख दिया है। इसलिए जिन्दगी को आनंद से जिएं। ठीक उसी तरह, जिस तरह फिल्म आनंद में अमिताभ बच्चन को राजेश खन्ना कहते हैं-बाबू मोशाय…जिन्दगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नहीं।
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