बरगद के विशाल वट वृक्ष देखना अपने आप में एक अनुभव है। उसकी ममतामयी छाया तन-मन को तरंगित कर देती है। बरसों पुराने बरगद की ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की ओर जाने वाली दाढऩुमा जड़ें और शाखाएं कड़े संघर्षों और गहरे अनुभवों का आभास देती हैं। वट वृक्ष के फल खाकर अपना गुजारा करने और उसकी खोखरों एवं शाखाओं में अपना ठिकाना बनाने वाले कितने ही जीव-जंतु जब अपनी मीठी वाणी से तराना छेड़ते हैं, तो उस संगीत का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। यह मनोरम दृश्य और सुरीला संगीत मन को प्रफुल्लित एवं विचारों को आंदोलित करता है। ऐसे में वह अनजाना व्यक्ति भी ध्यान में आता है, जिसने वह वट वृक्ष कभी नन्हें पौधे के रूप में रोपा होगा। दुनिया भर के सभी देशों में अपनी शाखाओं के जरिये मानवता की भलाई के लिए सक्रिय रेड क्रॉस भी मुझे उसी विशाल वट वृक्ष की भांति ही नजर आता है। जोकि युद्ध एवं शांतिकाल में समान रूप से मानवता की सेवा में लगा हुआ है और निश्चय ही इस पौधे को रोपने वाले जीन हेनरी ड्यूनेंट की शख्सियत भी झलकने लगती है। उन्हीं के जन्मदिन के उपलक्ष्य में 8 मई को पूरी दुनिया में रेड क्रॉस दिवस मनाया जाता है।
ड्यूनेंट का जन्म स्विटजरलैंड के खूबसूरत शहर जेनेवा में 8मई, 1828 को हुआ था। ड्यूनेंट के माता-पिता सामाजिक कार्यों को बहुत महत्व देते थे। वे अनाथों, असहायों, बीमारों और गरीबों की सेवा में लगे रहते थे। उन्हीं के संस्कारों का प्रभाव ड्यूनेंट पर पड़ा और 18वर्ष की आयु में वे एक चैरिटी सोसायटी में शामिल हो गए। 1849 में 21 वर्ष की अवस्था में कम अंक आने के कारण उन्हें कॉलेज छोड़ना पड़ा। पढ़ाई छोड़ने से पहले उन्होंने एक बैंक में काम करना शुरू कर दिया था। समाज के लिए कुछ करने का जज्बा उनमें बचपन से हिलोरें मारता था। इसलिए कुछ समय के बाद उन्होंने अपने मित्रों के साथ मिलकर थर्सडे एसोसिएशन नाम के संगठन की स्थापना की। यह युवाओं का समूह था, जिसका उद्देश्य गरीबों की मदद करना था। 1853 को ड्यूनेंट को कंपनी की ओर से अल्जीरिया और ट्यूनिशिया की यात्रा पर जाना पड़ा।
24 जून, 1859 की शाम को जब ड्यूनेंट व्यापारिक दिक्कतों के मद्देनजर फ्रांस के शासक नपोलियन तृतीय से मिलने जा रहे थे, तो उन्होंने सोलफेरिनो में सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध में हजारों रक्तरंजित घायल एवं मृत लोग धरती पर पड़े देखे। घायलों की देखभाल करने वाला कोई नहीं था। घायल सैनिक रक्त एवं चिकित्सा के अभाव में तड़प रहे थे। इस घटना से उनका दिल दहल गया और संवेदनशील ड्यूनेंट अपना सारा काम छोड़ कर घायलों की सेवा में लग गए। घायलों की सेवा के लिए उन्होंने आस-पास के लोगों को भी प्रेरित किया। जिससे बहुत से घायल सैनिकों की जान बचाई जा सकी। लेकिन मूलभूत सुविधाओं, रक्त एवं चिकित्सा के अभाव में हजारों सैनिक मौत के मुंह में समा गए। हेनरी ड्यूनेंट ने अपनी आंखों के सामने घटी इस घटना को -ए मैमोरी आॅफ सोलफेरिनो के नाम से लिखा है। इस पुस्तक को उन्होंने दुनिया के मजबूत नेताओं और राष्ट्राध्याक्षों को भेजा और घायल सैनिकों को बिना किसी भेदभाव के चिकित्सा सुविधाएं प्रदान करने की जरूरत रेखांकित की।
सोलफेरिनों के हृदयविदारक दृश्यों से उद्वेलित हेनरी ड्यूनेंट ने 9फरवरी, 1863 को जेनेवा में पांच लोगों की कमेटी गठित की। ड्यूनेंट के विचारों को सहमति दिलाने और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे लागू करवाने के लिए इस कमेटी ने काम शुरू कर दिया। हेनरी ड्यूनेंट की परिकल्पना को पहला नाम घायलों को राहत देने वाली अन्तर्राष्ट्रीय कमेटी के रूप में मिला। 26 से 29अक्तूबर, 1863 को युद्ध क्षेत्र में घायल सैनिकों की चिकित्सा के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। जेनेवा में आयोजित इस सम्मेलन में 36 लोगों ने हिस्सा लिया, जिनमें 18 लोग विभिन्न देशों के आधिकारिक प्रतिनिधि थे।
छह लोग गैर सरकारी संस्थाओं से थे और 7 विभिन्न देशों से आए गैर-सरकारी लोग थे। पांच कमेटी के सदस्य थे। इस सम्मेलन में रेड क्रॉस को अमली जामा पहनाने के लिए प्रस्ताव तैयार किए गए। यह तय किया गया कि हर देश में नेशनल रिलीफ सोसायटी फॉर वाउंडेड सोल्जर का गठन किया जाएगा। बिना किसी भेदभाव के घायल सैनिकों की चिकित्सा एवं रक्षा की जाएगी। युद्ध क्षेत्र में घायल सैनिकों की चिकित्सा के लिए स्वयंसेवकों का प्रयोग किया जाएगा। संस्था की पहचान के लिए सफेद पट्टी पर लाल रंग के क्रॉस चिह्न को मान्यता दी गई। जो रेडक्रॉस आज पूरे विश्व में मानवता की सेवा का प्रतीक बना हुआ है। आज रेड क्रॉस के कार्यों का विस्तार हो चुका है। गरीबों की मदद, रक्तदान, नेत्रदान, कुष्ठ एवं टीबी निवारण और एड्स सहित तमाम बीमारियों के प्रति जागरूकता फैलाने में यह संस्था अग्रणी भूमिका निभा रही है। इस संस्था को रक्तदान का तो अगुवा माना जाता है। दुनिया का पहला रक्त बैंक इस संस्था के द्वारा ही 1937 में अमेरिका में स्थापित किया गया था।
रेड क्रॉस के पौधे को रोपने और पालने के लिए हेनरी ड्यूनेंट ने अथक मेहनत की। दुनिया के देशों की यात्राएं की। गरीबी में जीवन बसर किया। 30अक्तूबर, 1910 को उनकी मृत्यु के समय उन पर कर्ज था। उन्हें इस बात का अफसोस भी था कि वे अपने जीवनकाल में कर्ज नहीं उतार पाए। लेकिन अच्छी बात यह रही कि गाँव की चौपालों पर बरगद का पौधा रोपने वाले अनजान व्यक्ति की भांति हेनरी ड्यूनेंट से दुनिया अनभिज्ञ नहीं है। 1901 में उन्हें उनके अथक प्रयासों के लिए पहला नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया था। भारत में 1920 में पार्लियामेंट्री एक्ट के तहत भारीय रेडक्रॉस सोसायटी की स्थापना की गई। आज रेडक्रॉस की 700 से अधिक शाखाएं हैं, जोकि मानवीय एवं प्राकृतिक आपदाओं व सामान्य स्थितियों में भी मानव जीवन और स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए विभिन्न तरह से काम कर रही हैं।
अरुण कुमार कैहरबा
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।