इटली के मार्क्सवादी एंटोनियो ग्रामसि के स्थिति का युद्ध और पैंतरेबाजी का युद्ध सत्ता संघर्ष में दो अलग अलग अभिव्यक्त्यिां हैं। स्थिति का युद्ध एक धीमे और गुप्त संघर्ष को दर्शाता है जहां पर शक्तियां प्रभाव और सत्ता प्राप्त करने का प्रयास करती हैं जबकि पैंतरेबाजी का युद्ध एक खुला संघर्ष है जिसका परिणाम विभिन्न पक्षों के बीच प्रत्यक्ष टकराव के माध्यम से निर्धारित किया जाता है। आज हमारे देश में राजनीतिक दल मतदाताओं को तुष्ट करने का प्रयास करते हैं और इस खेल का उद्देश्य विजेता को ही सब कुछ प्राप्त करने का अवसर देना होता है। अयोध्या का मामला भी ऐसा ही है। चुनाव आते ही संघ परिवार राजनीतिक फसल काटने के लिए और चुनावी लाभ लेने के लिए अयोध्या आंदोलन को हवा देता है। किंतु हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने एक बार फिर से अयोध्या मामले की सुनवाई को टालकर उसे एक बड़ा झटका दिया है और इसका कारण बताया है कि इस मामले मे सुनवाई के लिए न्यायधीश उपलब्ध नहीं है।
इससे न केवल इस मामले का शीघ्र समाधान टल गया है अपितु इसने सरकार को चुनावों की घोषणा से पूर्व अपनी अंतिम चाल चलने के लिए मजबूर किया है। सरकार ने उच्चतम न्यायलाय से अनुमति मांगी है कि वह अयोध्या में विवादास्पद राम जन्म भूमि, बाबरी मस्जिद के आसपास के 67.703 अतिरिक्त भूमि को उसके मूल मालिक अर्थात राम जन्म भूमि न्यास को सौंपने की अनुमति दे और इसका राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद ने भी समर्थन किया है। क्या केन्द्र में सत्ता बचाने के लिए संघ परिवार हिन्दू मतदाताओं को एकजुट करने का प्रयास कर रहा है? ऐसा लगता है चुनाव नजदीक आ गए हैं और लगता है इस मामले में सरकार के पास समय नहीं रह गया है और विभिन्न चुनावी सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि हालांकि मोदी के लिए कोई प्रतिस्पर्धी नहीं है फिर भी भाजपा को उतनी सीटें नहीं मिल पाएंगी जितनी बहुमत के लिए अपेक्षित हैं और विपक्ष भी महागठबंधन के नाम पर एकजुट होने का प्रयास कर रहा है।
आज लोक सभा में भाजपा के लिए 273 सांसद हैं जबकि शुरू के इसके 282 सांसद थे। इस रणनीति में बदलाव के तीन कारण हैं। पहला, संघ परिवार के कार्यकतार्ओं में भी यह भावना बलवती होती जा रही है कि भाजपा अपने वैचारिक एजेंडा के प्रति समर्पित नहीं है। संघ परिवार में यह चिंता है कि यदि विवादस्पद स्थल पर राम मंदिर का निर्माण नहीं किया गया तो जमीन से जुड़े कार्यकर्ता हताश होंगे और उनमें आक्रोश पैदा होगा। साथ ही प्रयागराज में अर्ध कुंभ के अवसर पर साधुओं तथा अखाड़ों के एक साथ आने से वे अगले कुछ सप्ताहों में अयोध्या मार्च कर अपनी नाराजगी व्यक्त कर सकते हैं और इससे सांप्रदायिक तनाव तथा कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है।
एक वरिष्ठ नेता के अनुसार जब हम उत्तर प्रदेश और केन्द्र दोनों में सत्ता में हैं तब राम मंदिर के निर्माण का कार्य शुरू नहीं कर सकते तो फिर कब कर पाएंगे। दूसरा, तीन हिन्दी भाषी प्रदेशों में भाजपा की हाल की चुनावी हार के बाद सरकार और पार्टी राम मंदिर के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाना चाहते हैं जिससे न केवल उसके मूल समर्थक, कार्यकर्ता और धार्मिक जनाधार तुष्ट होगा अपितु उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में जात-पात से उठकर हिन्दू मतदाता उसका समर्थन कर सकते हैं
। यही नहीं चुनावी दृष्टि से उत्तर प्रदेश मुख्य राज्य है जहां पर नए राजनीतिक समीकरण बन रहे हंैं जो भगवा संघ को नुकसान पहुंचा सकते हैं। एक ओर बसपा-सपा के बुआ भतीजे ने हाथ मिला दिए हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस की प्रियंका वाड्रा भी चुनावी राजनीति में कूद गयी हैं और ये दोनों ही भाजपा के उच्च जातियों और दलित मतदाताओं में सेंध लगा सकते हैं। 2018 के उपचुनाव में मायावती-अखिलेश के गठबंधन की चुनावी जीत साथ ही बिहार में लालू-राहुल का गठबंधन और तेलंगाना में नायडू-राहुल के गठबंधन ने अन्य क्षेत्रीय दलों को मोदी के विरुद्ध एकजुट होने की राह दिखायी है। इसके अलावा आम आदमी का भाजपा के प्रति मोह भंग हो रहा है इसलिए भाजपा की हताशा समझी जा सकती है और इसीलिए वह आगामी चुनावों में मतदाताओं को लुभाने के लिए किसी दूसरे सपने को बेचने का प्रयास करेगी।
एक वर्ष पूर्व तक भाजपा की जीत निश्चित लग रही थी किंतु आज वैसी स्थिति नहीं है। इसलिए अयोध्या में राम मंदिर के सुपरीक्षित मुद्दे से बेहतर क्या हो सकता है। इसमें भाजपा को विशेषज्ञता भी प्राप्त है और इससे हिन्दू मत भी एकजुट होंगे जो भाजपा को भारत की राजगद्दी तक पहुंचा सकता है। तीसरा, सरकार राजनीतिक दृष्टि से अपने इरादे और प्रतिबद्धता का संकेत देना चाहती है कि वह कानूनी और संवैधानिक मर्यादाओं को तोड़े बिना भी अपने एजेंड़ा पर आगे बढ सकती है और इसीलिए उसने अयोध्या में अतिरिक्त भूमि को लौटाने का दांव खेला है। यदि न्यायालय भाजपा के इस आग्रह से इंकार कर देता है तो फिर वह न्यायपालिका को एक खलनायक के रूप में पेश करेगी और यदि न्यायालय स्वीकार करता है तो इससे राम मंदिर के निर्माण को शुरू करने के लिए संघ परिवार को आशा दिखायी देने लगेगी। देखना यह है कि क्या इससे चुनावी लाभ मिलेगा या नहीं।
राष्टÑीय स्वंयसेवक संघ और भाजपा के लिए विवादास्पद स्थल पर राम मंदिर का निर्माण हमेशा से उनकी धर्म आधारित बहुलवादी राजनीति का केन्द्र रहा है। हिन्दुत्व ताकतें मानती हैं कि आस्था के प्रश्नों को देश के कानून के अधीन नहीं किया जा सकता है इसलिए संघ परिवार इस विचार से सहज नहीं है कि न्यायपालिका धर्म के मामलों में हस्तक्षेप कर सकती है और ऐसा कर वह संवैधानिक पूर्वोद्दाहरण स्थापित करे। यही नहीं यदि उच्चतम न्यायालय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के निर्णय को रद्द करता है जिसके अंतर्गत विवादास्पद भूमि को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के बीच बराबर बांटा गया था और यदि उच्चतम न्यायालय इस पूरे विवाद को एक नया स्वरूप देता है जिससे राम मंदिर का निर्माण खतरे में पड़ जाता है तो फिर क्या होगा।
अयोध्या में 67.03 एकड़ भूमि को केन्द्र सरकार ने 1993 में अयोध्या में कतिपय क्षेत्रों के अधिग्रहण अधिनियम 1993 के अंतर्गत अधिग्रहित किया था और केन्द्र ने यह कदम 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को ढहाने के बाद सांप्रदायिक सौहार्द बनाने के लिए किया था। अगले वर्ष इसे चुनौती मिली थी किंतु उच्चतम न्यायलय ने इस कानून को वैध ठहराया और आदेश दिया था कि इस विवाद के निपटान तक अधिग्रहित भूमि केन्द्र सरकार के पास ही रहेगी।
भाजपा की चिंता को समझा जा सकता है। अयोध्या भाजपा के लिए सत्ता बचाए रखने के लिए करो या मरो का प्रतीक है क्योंकि उत्तर प्रदेश से लोक सभा के 80 सदस्य चुनकर आते हैं और उसे आशा है कि भगवान राम उन पर कृपा करेंगे। चुनाव में हार से उसके भारत पर शासन करने और कांग्रेस मुक्त भारत बनाने के सपने पस्त हो जाएंगे और उसके राजनीतिक अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग जाएगा। केन्द्र में अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनने के पीछे भाजपा द्वारा हिन्दुत्व कार्ड खेलना और बहुसंख्यक हिन्दू वोट बैंक द्वारा उसे समर्थन देना है। अब आगे क्या होगा? सरकार की लोकप्रियता कम हो रही है इसलिए भाजपा और संघ परिवार अपने पुराने फार्मूला पर लौटना चाहती है और इसलिए वह अयोध्या को मुख्य मुद्दा बनाना चाहती है।
इसीलिए संघ ने बड़ी चालाकी से मंदिर को मुख्य मुद्दा बनाया जिस पर भावनाओं का धु्रवीकरण किया जा सकता है और इस तरह वह अपने कार्यकर्ताओं और धार्मिक आधार को भी तुष्ट कर सकते हैं और इस तरह वह उत्तर प्रदेश में जात-पात से ऊपर हिन्दू मतदाताओं को अपने पक्ष में कर सकती है और इस क्रम में वह किसी कानूनी और संवैधानिक मर्यादा का भी उल्लंघन नहीं करेगी। क्या मोदी सरकार अपने कुछ सहयोगी दलों और मित्रों के संभावित विरोध के बावजूद अयोध्या का जुआ खेलने के लिए तैयार है? यदि यह मुद्दा विफल हो गया तो फिर क्या होगा? भाजपा दुविधा में फंसी है क्योंकि वह जानती है कि आस्था और विश्वास अपना बदला लेते हैं। जिस भगवान में वह विश्वास करते हैं वह अपनी मर्जी से चलता है। फिलहाल वह संघ परिवार को उसकी खुद की जटिलताओं का स्वाद चखा रहा है। देखना यह है कि क्या मतदाता यह मानते हैं कि हिन्दू समाज के लिए राम मंदिर उच्च प्राथमिकता है?
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