Away From the Root : कहानी: जड़ से दूर

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गाड़ी से उतरकर डॉक्टर रोहित अपरिचित और सूने प्लेटफार्म पर खड़े थे। इक्का-दुक्का मुसाफिर, प्लेटफार्म पर इधर-उधर पड़े बोरियों के ढेर…चारों ओर अंधेरा था और बाहर जाने वाले गेट पर पीली रोशनी देता एक लैंप पोस्ट टिमटिमा रहा था। डॉक्टर का सूटकेस और एक बैग सामने पड़े थे। यह था भारत के एक छोटे-से गांव का सुनसान स्टेशन…।
न्यूयार्क से शुरू हुई डॉक्टर की यात्रा का अंत इसी स्टेशन पर आकर हुआ था। एक अजीब उत्सुकता से उसका हृदय धक-धक कर रहा था। अचानक ही अंधेरे से बूढ़ा स्टेशन मास्टर उतर आया, एक हाथ में टार्च और दूसरे में पेन थामे उसने हाथ आगे बढ़ाते हुए मुंह खोला-‘आपका टिकट’ स्टेशन मास्टर की वाणी में एक मार्मिकता थी, जिस आत्मीयता की डॉक्टर कल्पना कर रहा था, उसका शतांश भी उसमें मौजूद नहीं था। उसका हृदय न जाने क्या सोचकर बैठ गया।
यस, यस! न जाने कहां खोया डॉक्टर रोहित स्टेशन मास्टर को सामने पाकर एकदम सचेत हुआ और अपनी जेब से एक मुड़ा-तुड़ा कागज निकालकर स्टेशन मास्टर की ओर बढ़ाता हुआ बोला-‘यहां पर ठहरने की कोई जगह होगी?’ स्टेशन मास्टर ने इस अपरिचित को पहले टार्च की रोशनी में ऊपर से नीचे तक देखा और बाद में टिकट को। उसने उसकी बात शायद नहीं सुनी थी इसलिए पूछा-‘आपने कुछ जानना चाहा था?’ ‘सर यहां पर ठहरने का स्थान’।
जरूर-जरूर, स्टेशन मास्टर थोड़ा आश्वस्त हुआ और बाद में बोला- ‘पास में एक धर्मशाला है, आप उसमें ठहर सकते हैं, लेकिन आपको जाना कहां है?’ स्टेशन मास्टर ने उसे टटोलना चाहा। ‘नो व्हेयर, मैं यहींं आया हूं, यहीं’ उसने स्टेशन के नाम के बोर्ड की ओर एक बार फिर देखा। स्टेशन मास्टर ने एक कुली को आवाज दी और उसे हिदायत दी -‘इन्हें धर्मशाला तक ले जाओ, ये वहीं ठहरेंगे।’
स्टेशन से निकलकर एक मामूली सड़क थी जिस पर गाड़ी आने से थोड़ी चहल-पहल हुई थी, लेकिन अब सन्नाटा पसर गया था। इधर -उधर बने मकान जो खामोश खड़े थे, बीच-बीच में कुछ दुकानें बनी थीं और दुकानों पर पीली रोशनी देते जीरो वॉट के बल्ब टिमटिमा रहे थे। सारा गांव अंधेरा ओढ़े सोने की तैयारी कर रहा था। धर्मशाला में आकर डॉक्टर को एक सुकून-सा मिला। कुली ने भीतर जाकर एक कमरे में उसका सामान रखा और पैसे लेकर चला गया। वह अंधेरे कमरे में एक ओर थका-सा बैठ गया। इसी बीच एक सात-आठ वर्ष का बालक जिसने एक लबादे से अपने आपको ढंक रखा था, उस तक चला आया। उसने अंधेरे में बैठे डॉक्टर को देखा और रोटी चाहिए-जानना चाहा।
रोटी की जगह उसने ‘थाली’ शब्द का प्रयोग किया था। डॉक्टर ने बच्चे को एक थाली लाने के लिए कह दिया। उसने उठकर अपने बैग से एक मोमबत्ती निकाली और जलाकर कमरे की खिड़की पर रख दी। मरियल-सा प्रकाश कमरे में फैल गया। खिड़की की सलाखें, काले कोयले से सफेद दीवारों पर लिखे नाम-अचानक डॉक्टर के सामने आ गए। कमरा न जाने कब से बंद था। सीलन और मैल की दुर्गंध… कोयले से लिखे नामों में न जाने क्या था जो उसे चौंका गया। दीवार पर कोयले से उसके पिता का नाम लिखा था। एक क्षण को वह सिहरा, लेकिन बाद में यह सोचकर कि उसके पिता के नाम का अन्य पुरुष भी हो सकता है, उसने उस नाम को एक बार देखकर दिमाग से निकाल दिया।
लड़का थाली ले आया था। उसे सचमुख भूख लग रही थी। आज वर्षों बाद अपने गांव के पानी से निर्मित भोजन उसके पेट में जाएगा। यह सोचकर वह खुश हो आया। चार रोटियां, एक सब्जी, एक हरी मिर्च, प्याज के कुछ टुकड़े और नींबू की एक फांक…। उसने लपककर ग्रास तोड़ा, उसे सब्जी के साथ मुंह में रखा और उसी क्षण एक तीखी झनझनाहट से और जलन से उसकी आंखों में पानी छलक आया।
उसने थाली एक ओर सरका दी। सब्जी में बेहद मिर्ची थी। डॉक्टर अमेरिका जाकर मिर्ची खाना भूल गया था। मिर्ची के तीखेपन से उसकी भूख और ज्यादा भड़क उठी। उसने सामने रखे बैग से बिस्कुट का पैकेट निकाला और पानी के साथ एक-एक बिस्कुट खा गया। वहीं लड़का थाली लेने चला आया। उसने एक चाय और मंगवाई और चाय के साथ रोटी के दो टुकड़े खाकर सो गया। सुबह जब उसकी नींद खुली तो बाहर उजाला हो आया था। कमरे से बाहर दीवार के सहारे खोले गए उसके जूते गायब थे। उसने इधर-उधर तलाशा, लेकिन जूतों का कोई पता नहीं चला।
उसे याद था- बहुत पहले गांव में उसके खेत थे और उसके पिता खेत बेचकर शहर चले गए थे। शहर में रहकर ही उसने डॉक्टरी पढ़ी थी और वह एक यात्री के साथ अमेरिका चला गया था। उसने पामेला नाम की एक लड़की से विवाह कर लिया था। पामेला एक धनी बाप की बेटी थी। एक आलीशान मकान न्यूयार्क में था और हजारों एकड़ का फार्म। उसकी स्वयं की डॉक्टरी आकाश छू रही थी। जीवन के उस संघर्ष में कभी-कभी उसे अपने गांव की याद आती थी, लेकिन उस याद को वह दबा जाता था। पिछले दिनों इस याद को वह नहीं दबा सका।
उसे खेतों की याद आई और एक दिन वह अपने साथ थोड़ा-सा सामान लेकर भारत के लिए चल दिया। वह अमेरिका का बहुत बड़ा डॉक्टर था। गांव देखने का मोह ही उसे भारत खींच लाया था। वह अपने खेत देखना चाहता था, अपने कुएं का मीठा पानी पीना चाहता था। कुएं के आसपास उगे फलों के पेड़ों में विचरना चाहता था।उसे जागा देख, रात वाला वही लड़का ठंड में सू-सू करता हुआ आया और दरवाजे में खड़े होकर उसने पूछा- ‘चाय लोगे’। उसे अपने जूते खोने की हल्की-सी खीझ हो रही थी, लेकिन अपनी खीझ को भूलकर उसने बच्चे को देखा। छार-छार हुए लबादे में कांपता वह बच्चा न जाने कब से उसका इंतजार कर रहा था।
लबादे के बटन गायब थे, उसने अपनी अंगुली से इशारा कर दिया-‘एक चाय!’ यह कहकर वह बाहर से चप्पल खरीदकर लाया और बाद में पश्चिम दिशा की ओर चल दिया, जिधर उसके खेत थे। रास्ते में वही उसका अपना कुआं आया, जिसका पानी बेहद मीठा था। सुबह-सुबह कुएं से पानी भरने वाली स्त्रियों की भीड़ बढ़ रही थी, कुछ पुरुष पानी के भरे पात्र लिए गांव की ओर जाते हुए मिले। सामने छोटे से नाले के पार इमली का वही पेड़ खड़ा था। इमली से इधर तिराहे पर मोटर स्टैंड बन गया था, जहां पर एक-दो बसें खड़ी थीं और स्टैंड पर बनी दुकानों के आगे-धुआं देतीं सुलग रही थीं। इमली की पगडंडी पर आकर उसे एक अद्भुत सुकून का अहसास हुआ।

खेतों में चारों ओर गेहूं की फसलें खड़ी थीं

इन फसलों को वह काफी देर तक देखता रहा। उसने चने के एक-दो पौधे खेत से उखाड़े और ज्यों ही वह चने के घेघर को छीलकर खाने को हुआ, एक किशोर लड़का उसे धमकाने लगा। वह हक्का-बक्का होकर किशोर को देखने लगा। उसका चेहरा क्रोध से तमतमा रहा था, किशोर द्वारा उसे गाली दिए जाने के औचित्य को वह कतई नहीं समझ सका।उसे याद आया-बचपन में कई बार अपने साथियों के साथ वह खेतों पर आया था और खेतों से चने के पौधे उखाड़कर उसने और साथियों ने बड़े प्रेम से खाए थे। उस समय उसके पिता ने कोई विरोध प्रगट नहीं नहीं किया था, अपितु वे उसके किशोर मित्रों को खेतों पर पाकर खिल उठे थे। एक गहरी आत्मीयता के साथ वे सबको अपने हाथ से चने के पौधे उखाड़-उखाड़कर देते रहे थे, लेकिन आज यह अचानक कैसा परिवर्तन आ गया। आत्मीयता के ये संबंध न जाने कहां गायब हो गए हैं? वसुधैव कुटुम्बकम की वह भावना कहां लोप हो गई।
वह नहीं समझ सका। एक छोटा-सा किशोर एक पौधा चने का उखाड़ने पर गाली-गलौच करने पर उतारू हो जाएगा, इसकी तो उसने कल्पना ही नहीं की थी। उसने मुस्कुराकर किशोर को अपने पास बुलाया, जब किशोर चला आया तो उसने जेब में हाथ डाला और पांच सौ का एक नोट निकालकर उसने किशोर की तरफ बढ़ा दिया, लो यह रख लो तुम्हारे काम आ जाएगा, बाद में जैसे उसे कुछ याद आया था, उसने किशोर से पूछा- ‘क्या पढ़ाई कर रहे हो?’ किशोर ने नोट झपट लिया और उसके प्रश्न का उत्तर देने में जरा भी विलंब नहीं किया- ‘हां, मैं नौवीं में पढ़ रहा हंू, छुट्टियों में गांव आया था।’ उसने किशोर के मुख की प्रतिक्रिया देखी। किशोर को अपने कृत्य पर जरा भी अफसोस नहीं था। उसे महसूस हुआ जैसे किशोर पांच सौ रुपए पाकर भी उसका उपहास कर रहा है।

सैकड़ों वर्षों पुराना यह देवरा आंधी-झंझावात झेलता हुआ बिल्कुल जर्जर हो गया था

उसने विशेष समय गंवाए वहां से चलना ही उचित समझा। धरती मौन थी। उसने चलते हुए धरती को छुआ और चुटकी भर मिट्टी हाथ में लेकर माथे से लगाई, जो खेत उसके थे और जिन्हें देखने वह इस उत्साह के साथ हजारों मील चलकर आया था, वे वैसे ही शांत और निस्पंद थे। अचानक ही उसे लगा जैसे खेतों के भीतर छिपी संजीवनी कहीं गायब हो गई है। एक यांत्रिकता यहां से वहां तक पसरी थी, एक कठोरता जिससे उसका हृदय छलनी-छलनी हो आया। सरयू माता का देवरा वहीं था। सैकड़ों वर्षों पुराना यह देवरा आंधी-झंझावात झेलता हुआ बिल्कुल जर्जर हो गया था। देवरे की उड़ती ध्वजा के रंग बिल्कुल फीके पड़ गए थे। देवरे के पास कुछ पत्थर खिसकर नीचे आ गए थे और उन खिसके पत्थरों में एक और बड़ा-सा पत्थर अभी-अभी खिसककर आया था।

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-शचीन्द्र उपाध्याय