किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि बैंकिंग क्षेत्र में इस तेजी से बदलाव आएगा कि प्रतिष्ठा सूचक एटीएम कार्ड की जितनी सहज पहुंच आम आदमी तक हो जाएगी, उतनी ही जल्दी उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह उभरने लगेगा। हमारे देश में लगभग ऐसा होने लगा है। यह प्रतिष्ठा सूचक एटीएम कार्ड केवल पांच दशकों में ही अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने लगा है।
पिछले एक साल में जिस तरह से देश की बैंकिंग व्यवस्था में बदलाव का दौर चला है, उससे तो ऐसा ही लगने लगा है। बल्कि यूं कहें कि डीमोनेटाइजेशन के बाद जिस तरह से सरकार ने डिजीटल लेन-देन को बढ़ावा दिया है और आम आदमी जिस तरह से डिजीटल लेन-देन की ओर बढ़ रहा है, उससे तो वो दिन दूर नहीं लगता, जब एटीएम मशीनें इतिहास की चीज हो जाएंगी।
ऐसा माना जाता है कि दुनिया में पहली एटीएम मशीन लंदन में 1967 में बर्कले बैंक्स ने स्थापित की थी। हमारे देश में तो इसके 20 साल बाद 1987 में एचएसबीसी बैंक एटीएम लेकर आया। हालांकि शुरुआती दौर में सिटी बैंक ने देश में सर्वाधिक एटीएम मशीनें लगाई, इसके बाद तो एटीएम मशीनें लगाने का दौर ही चल पड़ा और एसडीएफसी, एक्सिस बैंक और आईसीआईसीआई बैंक ने तो एक तरह से अभियान चलाकर एटीएम मशीनें स्थापित कर दीं। प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए एसबीआई के नेतृत्व में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने भी समूह सुविधा के रुप में एटीएम मशीनों का संजाल बिछा दिया।
देखा जाए तो कुछ घंटों की बैंकिंग सेवाओं वाले बैंक इस एटीएम सुविधा से ही 24 गुणा 7 और एनी व्हेयर-एनी टाइम बैंकिंग सुविधा सुलभ कराने में कामयाब हो सके। यह अपने आप में बड़ी बात हो गई कि एटीएम के चलते बैंकिंग सेवाएं आम आदमी के लिए आसान व सुविधा जनक हो गई। प्लास्टिक कार्ड ने पूरी तरह से बैंकिंग तस्वीर को बदल कर ही रख दिया। भले ही एटीएम का अधिकांश उपयोग पैसा निकालने में ही हो रहा हो पर इससे बैंक के काउंटर से बैंक सेवाएं गली मौहल्ले के चौराहे तक आ गई।
साल 2012-13 में देश में करीब एक लाख 10 हजार एटीएम मशीनें लगी हुई थी, जो 2016-17 तक बढ़कर दोगुनी यानी की दो लाख 20 हजार के आसपास हो गई। पिछले 7-8 माह से अब इस पर ब्रेक लग गया है। इसके बाद डीमोनेटाइजेशन और उसके बाद सरकार की पांबदियों के चलते डिजीटल लेन-देन के बढ़ावे के कारण एटीएम मशीनें लगने पर लगभग ब्रेक-सा ही लग गया।
स्थितियां यहां तक आने लगी हैं कि पहले से लगे एटीएम भी अब बैंकों के लिए नुक्सान का सौदा होने के चलते कई मशीनें बंद होने की स्थिति में आने लगी हैं। इतना जरुर है कि अब बैंकिंग सेवाएं आम आदमी की सहज पंहुच में हो गई है। लोग डिजीटल भुगतान को सहजता से लेने लगे हैं। देशवासी विमुद्रीकरण के महत्व को समझने लगे हैं, वहीं अब लोगों में बड़े नोटों को जमा करने की प्रवृति पर भी स्वप्रेरित अंकुश लगा है। कम से कम आरबीआई के आंकड़े तो यही कह रहे हैं।
नवंबर-दिसंबर के विमुद्रीकरण या यूं कहें कि नोटबंदी के परिणाम अब प्राप्त होने लगे हैं। विमुद्रीकरण और नकदी उपलब्धता को लेकर एसबीआई द्वारा तैयार कराई गई एक रिपोर्ट तो यही कहती है। रिपोर्ट के अनुसार देश में बड़े नोटों का चलन कम हुआ है, छोटी नकदी का उपयोग बढ़ा है और लोगों में डिजीटल भुगतान की प्रति रुझान बढ़ा है।
जहां एक ओर कार्ड के जरिए भुगतान के 40 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज हुई है, वहीं बड़े नोटों के लेन-देन में 14 फीसदी की कमी आई है। छोटे नोटों में, खासतौर से एक सौ रुपए के नोटों का चलन बढ़ा है। सरकार ने भी बाजार में छोटे नोट अधिक उतारे हैं। मजे की बात यह है कि जहां डेबिट कार्ड से प्रतिमाह करीब 75 करोड़ का लेन-देन हो रहा था, वह गिरकर 66 करोड़ पर आ गया।
अब तो लोग आवश्यक सेवाओं की पेमेंट भी डिजीटली करने लगे हैं। दरअसल एटीएम को सबसे बÞड़ी चुनौती स्मार्टफोन के चलते मिल रही है। स्मार्टफोन की आज आम आदमी के पास आसान पहुंच हो गई है।
देखा जाए तो सरकार ने सोची-समझी रणनीति के तहत आर्थिक सुधारों को बढ़ावा दिया है। सरकार बनते ही पहले आम आदमी के जीरो बैलेंस पर जनधन खाते खोले गए। हांलाकि उस समय इसकी काफी आलोचना हुई। जन-धन योजना में लाखों खाते खुले और 30-35 हजार करोड़ रुपए से अधिक की राशि इन खातों में जमा हो गई।
देखने वाली बात यह है कि यह राशि उस गरीब आदमी की बचत है, जो दो जून की रोटी के लिए संघर्षरत है। नोटबंदी के दौरान जन-धन खातों में कालाधन जमा होने की संभावना को लेकर खूब हो-हल्ला हुआ, पर 50 दिनों में यही कोई तीन-साढ़े तीन सौ करोड़ रुपए के आसपास इन जनधन खातों में जमा हुए। इससे साफ है कि जनधन खातों में अधिकांश पैसा नोटबंदी के अतिरिक्त जमा हुआ है।
नोटबंदी के दौरान आमजन को परेशानी और विपक्ष की आलोचना के बाद हुए चुनावों के परिणामों ने सरकार के पक्ष में मेंडेट देकर सारे कयासों को निर्मूल सिद्ध कर दिया। सरकार ने सोच-समझ कर ही बड़े नोट बाजार में कम उतारे और उसका परिणाम सामने है। बैंक खातों को आधार से अनिवार्य रुप से जोड़ने का परिणाम यह हो रहा है कि अब कालाधन आसानी से पकड़ में आ सकेगा।
सरकार डिजीटल लेन-देन को बढ़ावा देने के लिए ही बैंकिंग सेवाओं को शुल्क के दायरे मेंं ला रही है। देखा जाए, तो बैंकिंग सेवाएं अब सेवा नहीं रही, बल्कि पेड सेवा बन गई हैं। आधार से जुड़ते ही बेनामी खातों या एक से अधिक खातों की पकड़ भी आसान हो गई है।
हालांकि इन सुधारों से देश की आर्थिक विकास की गति प्रभावित हुई है, पर नए और कठोर निर्णयों का अल्पगामी व दूरगामी प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। आज दुनिया के देशों में भारतीय अर्थव्यवस्था को सशक्त आर्थिक व्यवस्था के रुप में देखा जा रहा है। हालांकि नवंबर से अब तक अर्थ-जगत में विरोध के स्वरों के कारण आर्थिक गतिविधियां प्रभावित हो रही हैं।
पहले नोटबंदी और अब जीएसटी के नाम पर विरोध हो रहा है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि नवाचार को अपनाने में समय लगता है, पर सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने की पूरी संभावनाएं भी रहती हैं।
बड़े नोटों के लेनदेन में 14 प्रतिशत की बड़ी कमी और डिजीटल भुगतान में 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी इसका साफ संकेत हैं। आंकड़े साफ करते हैं कि देश का नागरिक आर्थिक सुधारों में विश्वास रखता है, सहजता से स्वीकार भी करता है। खासतौर से जब नई चीजें आती है, तो थोेड़े समय में स्वीकार्य भी हो जाती हैं।
बड़े नोटों के लेन-देन में कमी से कालाधन का संग्रहण कम होगा, वहीं डिजीटल लेन-देन से कालाधन और भ्रष्टाचार पर कुछ हद तक रोक लग सकेगी। जिस तरह से राजीव गांधी की कम्प्यूटर क्रांति के सकारात्मक परिणाम आज देखने को मिल रहे हैं, आने वाले समय में डिजीटल भुगतान के तौर पर अधिक सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे और भारतीय अर्थव्यवस्था अधिक सशक्त होकर उभरेगी।