आखिर राजनीतिक कशमकश में गुजरात चुनावों का ऐलान हो गया। भाजपा ने यह दर्शाने का प्रयास किया कि वह किसी भी तरह चुनावों से घबराई हुई नहीं है। चाहे चुनावों का ऐलान हिमाचल प्रदेश को चुनावों के बाद हुआ है, लेकिन भाजपा गुजरात में पहले ही हावी थी। प्रधानमंत्री के दौरों ने इस तैयारी को पूरी तरह से गरमा दिया है। प्रत्येक उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री ने विरोधियों पर जमकर निशाने साधे। भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का सवाल है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि दोनों पार्टियों में गुजरात चुनावों का माहौल लोकसभा चुनावों जैसा है।
1995 से निरंतर काबिज भाजपा अपने इस गढ़ को केवल बरकरार ही रखना नहीं चाहती, बल्कि इन चुनावों से नोटबंदी व जीएसटी जैसे मुद्दों पर जनता की मोहर लगवाने के मूड में है। दोनों पार्टियां इस घमासान में एड़ी-चोटी का जोर लगाएंगी। पिछले 22 सालों से 60 सीटों तक सीमित रही कांग्रेस अपनी नजर इस बार पाटीदार समाज पर टिकाए हुए है।
प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी का गृह राज्य होने के कारण चुनाव प्रचार का बुखार शिखर पर रहेगा। गुजरात चुनावों में इस बार सबसे खास बात यह है कि राज्य में मुख्यमंत्री रह चुके नरेद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री के रुप में चुनाव प्रचार कर रहे है। प्रधानमंत्री द्वारा बड़े प्रोजेक्टों के उद्घाटन की झड़ी व विरोधियों द्वारा हमले वोटरों को खीचेंगे। अच्छी बात यह है कि गुजरात चुनावों में चाहे विरोधी बयानबाजी का रुझान है, लेकिन इसमें विकास को ही मुख्य बिंदू बनाया गया है। पिछले समय में राजनीतिक बयानबाजी को सांप्रदायिक रंग ज्यादा दिया गया, जिस कारण राज्य में धार्मिक सद्भावना को ठेस पहुंचती रही है और उसका असर अन्य राज्यों तक भी पहुंचता रहा है। हाल ही में राज्य में कोई सांप्रदायिक मुद्दा नहीं है।
सत्ता की इस जंग में धार्मिक सद्भावना भाइचारे जैसे देश में मूल्यों को कायम रखा जाए। अब जरूरत इस बात की है कि राजनीतिज्ञ जिम्मेवारी व संयम से काम लें। चुनावों को होव्वा न बनाया जाए। भाजपा विकास कार्यों को गिनाकर वोटरों को अपनी तरफ खींच रही है। देखना यह है कि कांग्रेस भाजपा को उसके गढ़ में टक्कर देने के लिए किस प्रकार की तैयारी करती है। लेकिन सभी पार्टियों को यह विशेषकर ध्यान रखना होगा कि अंतिम फैसला वोटर की जागरूकता व सोच-समझ पर ही निर्भर है।