अन्नदाता और देश के भविष्य की सुध लें सियासतदां

Annadar and the future of the country

एक तरफ देश जब सत्रहवीं लोकसभा के धुन में रमा हुआ है। उसी रामधुन के बीच जब राजनैतिक शुचिता और मयार्दाएं तार-तार हो रहीं। उस परिवेश में इसका सख़्त परीक्षण होना चाहिए, क्या व्यक्तिगत लांछन और आरोप लगाकर ही राजनीति की जा सकती? क्या देश में अन्य मुद्दों का अकाल पड़ गया है, जो राजनीतिक दल सेना के शौर्य पर मत मांग रहें। तो कोई सिर्फ बदजुबानी से हवा का रूख अपने तरफ मोड़ना चाह रहा। आज अगर धनबल सत्ता का पर्याय बन चुका है, तो वहीं राजनीतिक भाषा-शैली भी अपने निकृष्टतम स्तर पर पहुँच रहीं। ऐसे में यक्ष प्रश्न यहीं जब देश आजाद हो रहा था, तो क्या संविधान और लोकतंत्र को प्रतिरूप इसी दिन के लिए दिया गया था। यह विचारणीय प्रश्न बन जाता है। अब हम इन सब से इतर जीवन की मूलभूत नैसर्गिक जरूरतों जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी, कपड़ा और मकान की बात करते हैं।

बात यहां पर जब चल निकली है, नैसर्गिक जरूरतों की। तो उसमें शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि का दायरा अगर हर व्यक्ति के जीवन में ऊंचे ओहदे का है। फिर हमें समझना होगा, क्या आज के दौर में सियासतदां इन जरूरतों की पूर्ति में सफलता प्राप्त कर पा रहें हैं। उत्तर नकारात्मक ही कहीं न कहीं मिलेगा। इसके पीछे स्पष्ट कारण भी है। हमारी संसद हर वर्ष अमीर होती जा रहीं, लेकिन उसकी प्रजा गरीबी की मार से बाहर नहीं निकल पा रही। या उससे बाहर निकालने के इंतजाम बेहतरी के साथ सियासतदां करना नहीं चाहते। गरीबी को जड़ से दूर न करने के पीछे भी कहीं न कहीं वाजिब कारण समझ आता।

शायद सियासतदानों ने अवाम की नब्ज को पकड़ लिया है, कि उन्हें मुफ्तखोरी की लत लग चुकी है। ऐसे में अगर अवाम अपने जीवन स्तर में स्थायी बदलाव देखने की इच्छुक है, तो फिर उसे मुफ्तखोरी को नकारते हुए जनप्रतिनिधियों से प्रश्न पूछना होगा उनके संकल्पपत्र और घोषणापत्र का क्या हुआ। क्या उन्होंने 33 फीसदी भी अपने वादे को पूरा किया, और नहीं किया तो सरकार को दोबारा कैसे पास किया जाएं। ऐसा इसलिए क्योंकि हम जिस देश में हैं वहां प्रतिशत का व्यापक महत्व है, 33 फीसदी आने पर ही बच्चों को पास समझता जाता फिर सरकारों को अपने संकल्प पत्र के हिसाब से 33 फीसदी काम न करने पर दोबारा हम क्यों मत दें। ऐसी धारणा अब समाज में पुष्पित और पल्लवित करनी होगी। तभी इन सियासतदानों के होश ठिकाने लगाएं जा सकते।

जिस संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन जीने की स्वतंत्रता देता उसी संवैधानिक देश में बड़ी संख्या में अवाम भूखे सोने को विवश है। ऐसे में भोजन और स्वास्थ्य की आवयश्कता का निर्वहन प्रारंभिक काल में बच्चों के लिए उसके माता-पिता करते हैं। लेकिन शिक्षा ही ऐसा साधन है, जो बच्चों को जीवन में किसी अन्य चीजों को साध्य बनाने का अवसर प्रदान करती है। मानव शिक्षा के माध्यम से ही सामाजिकता का पाढ़ पढ़ता है, और अगर वह सरकारी नौकरी के योग्य नहीं बन पाता। तो वर्तमान दौर में हमारे देश में एक चलन जोर ओर पकड़ रहा हैं, कि अच्छी शिक्षा प्राप्तकर युवा खेती-किसानी की ओर अग्रसर हो। लेकिन वर्तमान दौर की शिक्षा प्रणाली की बात हो। उस परिवेश में दिखता है, कि भारतीय परिदृश्य में शिक्षा का पैमाना दुनिया में सबसे ज्यादा गर्त में जाता दिख रहा है। शिक्षा न रोजगार सृजन का साधन बन पा रहीं है, न ही शिक्षा में संस्कारों का कोई उचित साक्ष्य दिखता है। शिक्षा का भविष्य मात्र डिग्री धारकता का प्रमाण दृष्टिगोचर हो रहा है। इसका प्रमाण यह है, कि यूपी बोर्ड की जो परीक्षा कभी एशिया की सबसे कठिन परीक्षा लेने वाली संस्था कहलाती थी, वह अभी शिक्षा माफियों के दुष्चक्र में अटककर सर्टिफिकेट बॉटने तक सीमित दिख रही है।

आज एक तरफ देश की शिक्षा व्यवस्था चरमरा चुकी है, जिससे युवाओं को मुकम्मल भविष्य नहीं मिल पा रहा है, तो ऐसे में वे फिर भी कुछ हद तक खेती की तरफ ही कदम बढानें को विवश है। ऐसे में खेती अगर लाभ का धंधा नही बन पा रही है। तो इससे देश का अन्नदाता रूपी वर्तमान और भविष्य दोनों प्रभावित हो रहा है। अगर सेंट्रल इंस्टीट्यूट आॅफ पोस्ट हारवेस्टिंग इंजीनियरिग एंड टेक्नोजॉजी की रिपोर्ट के अनुसार हर वर्ष लगभग 92 हजार करोड़ का अनाज सरकार खुद भंडारण क्षमता नहीं होने के कारण बर्बाद कर देती है। फिर सरकारें अधिक उत्पादन के लिए किसानों को हर वर्ष विवश क्यों करती है। यह भी बड़ा मुद्दा बनकर उभरना चाहिए। शिक्षा की बदहाली का अंदाजे बयां इसी तथ्य से लगाया जा सकता है, कि देश में साक्षरता दर में बढ़ोत्तरी तो दर्ज हो रही है।

परन्तु गुणावत्ता और रोजगारपरक शिक्षा व्यवस्था समाज से दरकिनार होती जा रही हैं। बड़े-बड़े सरकारी दावों और विज्ञापनों के बाद वर्तमान दौर में सरकारी स्कूलों के बच्चों के ज्ञान स्तर से भारतीय शिक्षा व्यवस्था की कलई खुलती प्रतीत होती है। सरकारी आंकड़ों के खेल को देखे, तो पता चलता है, प्राइमरी और सेकेंड्री स्तर पर स्कूलों में वर्तमान परिस्थिति में 10 लाख के करीब पद खाली पड़ें है। देश के लगभग 37 फीसद स्कूलों में एक भी भाषिक अध्यापक नहीं है। ऐसे में देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार का भगीरथी प्रयास कैसे हो सकता है? इसके इतर देश के भीतर जो शिक्षक है, वे आंकड़ों की लड़ाई में गौर किए जाएं, तो पांच में से मात्र एक अध्यापक बेमुश्किल से प्रशिक्षित मिलते है।

इसके इतर देखा जाएं, तो किसानों की बदहाली और आत्महत्या का दौर जारी है, जिसका अंदाजा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आकंड़े से लगाया जा सकता हैं, जिसमें 2017 तक सिर्फ मध्यप्रदेश में पिछले 16 वर्षों में लगभग 21 ,000 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। जिसका कारण फसल बर्बाद होना, उचित दाम न मिलना बताया जाता है। फिर ऐसे में उसके द्वारा लगातार कृषि कर्मण पुरुष्कार हथियाने का क्या अर्थ? किसानों की आत्महत्या का यही आंकड़ा पूरे देश का हैं।

ऐसे में देश को आगे बढ़ाने की नींव खोखली मामूल पड़ती है। अगर देश के भीतर जिनके ऊपर देश का भविष्य बनाने और नींव तैयार करने की जिम्मेदारी है, वे ही न ठीक से प्रशिक्षित है और शिक्षकों की तादाद बहुत कम है। फिर देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार की बाट कैसे जोही जा सकती है? कुछ वर्ष पूर्व आएं एसोचैम के एक सर्वें के अनुसार देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़कर निकलने वाले लगभग 85 फीसद छात्र अगर अपनी योग्यता सिद्ध करने में सिद्वहस्त नहीं होते, तो यह हमारे रहनुमाओं और शिक्षण व्यवस्था को सोचना चाहिए, कि देश के कर्णधार को कैसी शिक्षा मुहैया करवाने पर बल दे रहें है, कि जिससे न उनका भला हो पा रहा है। बस मात्र कागजों पर बढ़ोत्तरी के लिए शिक्षा व्यवस्था को मजबूत करने के स्लोगन दिए जाते रहें है।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की 2016 की असर रिपोर्ट बताती है, कि ग्रामीण सरकारी स्कूलों के आठवीं के छात्रों में से सिर्फ 40.2 प्रतिशत छात्र गणित के भाग सवाल को हल कर पाते है। इसके साथ 2016 में आठवीं के 70 प्रतिशत छात्र है, जो दूसरी कक्षा की किताब पढ़ सकते है। जो आंकडा 2012 में 73.4 फीसद था। यूडीआईएसई की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 97923 प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में मात्र एक शिक्षक है। इस सूची में मध्यप्रदेश 18190 के साथ पहले स्थान पर है। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत 30 से 35 छात्रों एक शिक्षक होना चाहिए।

अगर देश में शिक्षा की यह स्थिति है, फिर देश की उन्नति में युवा कहां है? एक ओर किसान देश में बेहाल है, फिर वह अपने बच्चों को निजी स्कूलों में शिक्षा कैसे उपलब्ध करा सकता है? एक तथ्य यह भी है, कि सरकारी स्कूलों की अधोसंरचना और खामियों से ऊबकर जनता ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से दूर रखना उचित समझा हो। तो ऐसे में सरकारों को सरकारी स्कूलों की मूलभूत सुविधाओं में बढ़ोत्तरी की जहमत जोहना चाहिए। फिर जिस हिसाब से देश में शिक्षा प्रणाली गर्त में जाती दिख रहीं हैं। वह बताती है, कि भारतीय शिक्षा प्रणाली को सिंगापुर और फिनलैंड के नजदीक भटकने में वर्षों लगेगें। इसके साथ अभी हालिया रिपोर्ट जो चुनावी रण के दौरान ही स्वास्थ्य को लेकर आई। वह ओर चौकाने वाली है।

अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज डाइनेमिक्स इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी के मुताबिक अपने देश में छह लाख डॉक्टर और बीस लाख नर्सों की कमी है। वहीं देश के लगभग 5.7 करोड़ लोग प्रतिवर्ष गरीबी की गर्त में इसलिए चले जाते हैं, क्योंकि उन्हें स्वास्थ्य पर पैसे खर्च करने पड़ते हैं। ऐसे में देश का युवा, गरीब और किसान कहाँ है, और उसके लिए बेहतरी का क्या इंतजाम चल रहा। स्वत: स्पष्ट होता। यह नीति और नियत सियासतदानों को बदलना होगा। तभी श्रेष्ठ भारत की परिकल्पना सतही रूप से आकार लेती दिख सकती है।

 

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