एंजेला मर्केल की जीत: यूरोप तथा भारत के लिए मायने

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जर्मनी यूरोपीय यूनियन अर्थव्यवस्था का केवल प्रमुख इंजन ही नहीं है, अपितु तकनीकी क्षमताओं से युक्त ऐसा देश है, जो एंजिला मर्केल के नेतृत्व में यूरोपीय एकीकरण और वैश्वीकरण का समर्थक भी है। जर्मनी में एंजेला मर्केल लगातार चौथी बार जीत के बाद एक बार फिर कमान संभालने के लिए तैयार हैं।

अब जब मतगणना खत्म हो गई है, तो चांसलर मर्केल की सीडीयू अर्थात् क्रिश्चियन डेमेक्रेटिक यूनियन पार्टी के लिए यह तय कर पाना मुश्किल होगा कि इन चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी बनने की खुशी मनाए या जर्मन राजनीति में अब तक के सबसे खराब प्रदर्शन पर पार्टी चिंतन करें। जो समीकरण दिखाई दे रहे हैं, उनमें सत्ता के शीर्ष पर काबिज होने के लिए मर्केल को उन दलों के साथ गठजोड़ करना पड़ेगा जिससे उनकी विचारधारा अलग है।

सीडीयू (क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन) तथा सीएसयू (क्रिश्चियन सोशल यूनियन) के गठबंधन को बेशक इन चुनावों में 32.9 फीसदी मत मिले हैं, लेकिन यह 1949 में गठन के बाद से पार्टी का अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन है। ये नतीजे न सिर्फ मर्केल को प्रभावित करेंगे बल्कि इसका असर फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुअल माक्रो के उस विचार पर भी पड़ेगा जिसका मकसद यूरोप के मौजूदा स्वरुप को बदलना है। सीडीयू-सीएसयू गठबंधन को पिछले बार की तुलना में 8.5 फीसदी कम मत मिले हैं।

यूरोपीय सुधारों के लिए चुनौती:

फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने जर्मनी के साथ मिलकर यूरोप का पुनर्गठन करने का वायदा किया था ताकि न सिर्फ आर्थिक संकट से उबरा जा सके बल्कि यूरोपीय संघ को ब्रिटेन से बाहर हो जाने के बाद जो नुकसान हुआ है, उसकी भी भरपाई की जा सके। अपने एक भाषण में माक्रों ने इन विचारों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उन्होंने एकल मुद्रा ब्लॉक के लिए काम करना शुरू कर दिया है।

इस विचार को अब तक मर्केल का सहयोग भी मिलता रहा है। लेकिन नई सरकार की संभावित पार्टी एफडीपी के साथ और विपक्षी दल एएफडी की मौजूदगी में इस तरह का यूरोपीय एकीकरण बेहद ही चुनौती भरा साबित होगा।

अपने चुनाव अभियान में उदारवादी एफडीपी ने यूरोप के ईएसएम बेलआउट फंड को खत्म करने के साथ उन संधियों की वकालत की थी जो यूरोपीय देशों को यूरोपीय संघ छोड़ने की इजाजत देते हैं। यूरोप में एफडीपी भी एएफडी से अलग नहीं है। अगर एफडीपी के विचारों पर अमल किया जाए तो यूरोपीय संकट खड़ा हो जाएगा। गठबंधन में सिर्फ एफडीपी ही एंजेला मर्केल की मुश्किल नहीं होगी बल्कि सीडीयू की सहोदर पार्टी सीएसयू भी नए गठबंधन रच-बस पाएगी कि नहीं ये भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।

एएफडी का शानदार प्रदर्शन बवेरिया में सीएसयू के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है। अगले साल राज्य में होने वाले चुनाव में इससे सीधे सीएसयू को सीधे नुकसान पहुंचा सकते हैं। अपने नए कार्यकाल में चांसलर मर्केल और सीडीयू के रूढ़िवादी खेमे के लिए उन मतदाताओं को अपनी ओर वापस लाना सबसे बड़ी चुनौती होगी, जिन्होंने इन चुनावों में एएफडी पर भरोसा जताया है। इससे साफ है कि भविष्य में भी शरणार्थी नीति में बदलाव के लिए एंजेला मर्केल पर भारी दबाव होगा।

जर्मन चुनाव का भारत के लिए महत्व

भारत-जर्मनी के बीच पिछले वर्ष 1344 अरब का व्यापार हुआ था। जर्मनी, ब्राजील, भारत और जापान जी-4 समूह बनाकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में संयुक्त रुप से सुधार की मांग करते हैं। सौर ऊर्जा और ग्रीन एनर्जी के लिए एंजेला मर्केल ने भारत को 7700 करोड़ रुपये की सहायता देने का वादा किया है। इससे भारत-जर्मनी सबंधों को मर्केल के पुन: निर्वाचित होने के संदर्भ में भी समझा जा सकता है। जर्मनी एक राजनीतिक भूकंप से बच गया है, जिसका न केवल भारत-जर्मन संबंध अपितु भारत-यूरोप के संबंधों पर भी सकारात्मक असर होगा।

एंजेला मर्केल के वैश्वीकरण एवं एकीकृत यूरोप की अवधारणा से भारत के हित भी जुड़े हैं। कमजोर यूरोप भारतीय हितों के भी अनुरूप नहीं था। अगर दक्षिणपंथ एंजिला मर्केल को भी हरा देता तो यूरोपीय यूनियन को गंभीर धक्का लगता, जो एकीकृत मजबूत यूरोप के लिए खतरनाक होता। यूरोपीय यूनियन भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाजार है और भारत के कुल निर्यात में उसका हिस्सा 24% से भी अधिक है। यूरोपीय यूनियन भारत के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का भी सबसे बड़ा स्रोत है।

इसके अतिरिक्त जर्मनी एनएसजी तथा निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं में भारत की सदस्यता का स्वागत करता है। मर्केल एनएसजी के अतिरिक्त आस्ट्रेलिया ग्रुप तथा वासेनार व्यवस्था में भारत का स्वागत करती हैं। जर्मनी और भारत वर्ष 2000 से रणनीतिक भागीदार हैं। भारत दुनिया के उन चंद देशों में है, जिसके साथ जर्मनी अंतर सरकारी परामर्श बैठक करता है। इस तरह मर्केल के नेतृत्व में जर्मनी और भारत के संबंध काफी घनिष्ठ हैं। ऐसे में एंजेला मर्केल का पुन: निर्वाचित होना भारत के लिए काफी महत्वपूर्ण है।

इस चुनाव परिणाम से मर्केल के सामने कई कठिन चुनौतियां उपस्थित हुई हैं। जर्मनी की आयरन लेडी एंजला मर्केल अपने बूते पर बदलाव लाने का माद्दा रखती हैं। एंजेला के व्यक्तित्व को करीब से समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि फोर्ब्स पत्रिका ने उन्हें दो बार विश्व की सर्वाधिक शक्तिशाली शख्स का तमगा दिया है।

यही कारण है कि जनाधार घटने पर भी एंजेला का जादू फिए एक बार चला है। एंजेला मार्केल राजनीति में आने से पहले वैज्ञानिक थीं। इसलिए कहा जा रहा है कि वैज्ञानिक होने के इसी गुण की वजह से वह हर मुद्दे की तह जाकर समाधान खोज ही लेती है। इस तरह मर्केल नवीन राजनीतिक स्थिति का भी समाधान भी अवश्य खोज लेंगी।

-राहुल लाल

 

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