अधिकांश लोग ऊपरी आवरण या वेशभूषा से व्यक्ति के बारे में धारणा बना लेते हैं, लेकिन कहा गया है कि किसी का मूल्यांकन बिना उसे ठीक से जाने नहीं करना चाहिए। बंगाल के प्रसिद्ध नेता और वायसराय की कौंसिल के सम्मानित सदस्य श्रीकृष्णदास पाल से एक बार एक अंग्रेज (Englishman) मिलने आया। बगीचे में एक साधारण-सी धोती पहने फूल-पौधों की साज-संभाल करने वाले एक वृद्ध को अंग्रेज ने घोड़े की लगाम थमाई और पूछा, ‘‘क्या पाल महोदय अंदर है?’’ इतने में पाल महोदय अंदर से आए और वृद्ध के हाथ से घोड़े की लगाम लेकर आगंतुक अंग्रेज से बोले, ‘‘इनसे मिलिए, ये हमारे पूज्य पिताजी हैं।’’
अंग्रेज को अपने व्यवहार पर बड़ी लज्जा आई। उसने तपाक से श्रीकृष्णदास के पिता से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘आप भारतीय लोग बड़े सरल और सादे होते हैं। मुझे अपने व्यवहार के लिए खेद है, परन्तु मैंने अपनी गलती से यह शिक्षा ग्रहण कर ली कि बिना परिचय के किसी की वेशभूषा देखकर ही उसका मूल्यांकन नहीं करना चाहिए।’’
बुद्ध और अंगुलियार
अंगुलिमार कुख्यात लुटेरा और हत्यारा था। जो भी सामने आ जाता, उसे ही लूट लेता। यदि सामने वाला ना-नुकर करता तो उसकी तलवार उसका गला नापने को तैयार रहती थी। माला में पिरोने के लिए वह अपने शिकार अधिकांश लोगों के हाथों की अंगुलियाँ काट लेता था। वह अपने गले में अंगुलियों की माला पहनता था। इसीलिए, उसका नाम अंगुलिमार पड़ा। एक दिन महात्मा बुद्ध घने जंगल में होकर कहीं जा रहे थे। दूर से अंगुलिमार ने उन्हें देख लिया। वह आनन-फानन में जा पहुँचा, उनके पास आकर बोला, ‘‘साधु, जो कुछ भी तुम्हारे पास हो, उसे निकाल दो अन्यथा तुम्हारी जान की खैर नहीं।’’
अंगुलिमार की बात सुनकर बुद्ध मुस्कराए और उसकी आँखों में गहराई से झांककर बोले, ‘‘वत्स, मेरे पास दया और क्षमा जैसे रत्नों का भारी भंडार है। वह तुम्हें सौंपता हूँ। झगड़े की क्या जरूरत है?’’ बुद्ध का इतना कहना था कि मानो जादू हो गया। अंगुलिमार अपनी तलवार दूर फेंककर बुद्ध के चरणों में झुक गया और बोला, ‘‘धन्य हो महात्मन, आज मैं मालामाल हो गया।’’ यही कुख्यात लुटेरा अंगुलिमार बौद्धभिक्षु बन गया।
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