पेरिस समझौते से बाहर आकर अमेरिका ने अपनी पारंपरिक आार्थिक पूंजीवादी सम्राज्यवाद की नीतियों का ही प्रमाण है। सन 2015 में हुए पैरिस समझौते पर 72 देशों ने हस्ताक्षर किए थे।
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस समझौते से खुशी जताई थी। विकासशील देशों को इस समझौते पर संतुष्टि हुई थी, क्योंकि इससे पहले विकसित देशों द्वारा ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन के लिए विकासशील देशों को ही जिम्मेवार ठहराया जाता था। दरअसल अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हर फैसले को लाभ-हानि की नजर से देखते हैं।
वह विश्व के बड़े बिजनेसमैन हैं, जिनका अरबों डॉलर का रीयल एस्टेट का कारोबार है। ट्रंप ने राष्ट्रपति रीगन, जार्ज बुश व जार्ज डब्ल्यू बुश की परंपरा को दोहराया, जब अमेरिका का प्रशासन लंबे समय से जलवायु परिवर्तन का कारण विकासशील देशों को बताता आ रहा था।
बराक ओबामा ने इस नीति को बदलते हुए सद्भावना व लोकतंत्र मूल्यों की नीति अपनाई व विकसित देशों को अपनी जिम्मेवारी निभाने के लिए तैयार किया, उनके उलट अब ट्रंप विकासशील देशों को आंखें दिखाने लगे हैं, खासकर भारत व चीन को निशाना बनाया जा रहा है। दरअसल अमेरिका के इस फैसले के पीछे उसकी कूटनीति भी काम कर रही है।
ट्रंप ने समझौता छोड़ने का फैसला उस समय किया, जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी रूस के दौरे पर थे। रूस व भारत के बीच रक्षा साजो-सामान के लिए अहम समझौता हुआ है। पेरिस समझौते के नाम पर अमेरिका भारत की रूस से दोस्ती को निशाना बना रहा है। अमेरिका का दावा है कि भारत व चीन ग्रीन हाऊस गैसों में कटौती के लिए कुछ खास नहीं कर रहे।
यदि जलवायु परिवर्तन को एतिहासिक नजरिए से देखें तो 2015 के पेरिस समझौते के आधार पर भारत की जिम्मेवारी तय करना तथ्यहीन व तर्कहीन मामला है। पिछली एक सदी से विकसित देश ही प्रदूषण के लिए जिम्मेवार हैं।
विकासशील देशों में औद्योगिक विकास पिछड़ा हुआ है। अब जब विकासशील देशों को उद्योगों की जरूरत है तब विकसित देश प्रदूषण की दुहाई दे रहे हैं। प्रदूषण की इस दुहाई से विकासशील देशों को उत्पादन करने से रोक कर विकसित देश अपने माल की बिक्री के लिए मंडी बनाना चाहते हैं। अमेरिका की पर्यावरण पर दोहरी नीतियां कई विकसित देशों को भी पसंद नहीं आ रही।
फ्रांस व कई अन्य यूरोपीय देशों ने अमेरिका के उक्त फैसले की अलोचना की है। जलवायु परिवर्तन बहुत बड़ी समस्या है, जिसे विश्व कल्याण की दृष्टि से समझने की आवश्यकता है, अत: विकासशील देशों पर प्रदूषण नियंत्रण व पर्यावरण सरंक्षण का उतना ही दवाब डाला जाए, जितनी कि वह भूमिका निभा सकते हैं।
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