अमेरिका: अदालती कार्रवाई और चीन

चीन पर अमेरिकी नागरिकों को मारने और उन्हें बीमार करने की साजिश रचने का आरोप लगाते हुए अमेरिका ने चीन की सरकार व उसके कई अधिकारियों पर मुकदमा दायर किया है। अमेरिकी राज्य मिसौरी की ओर से संघीय न्यायालय में दायर किए गए मुकदमे में कोरोना वायरस के संक्रमण से दुनियाभर में हुई मानवीय क्षति और अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान के लिए चीन को कसूरवार ठहराया गया है। मुकदमें में चीन पर कोरोना वायरस को लेकर सूचनाएं दबाने, मेडिकल शोध की जानकारियों को नष्ट करने तथा इसकी संक्रामक प्रकृति से इनकार करने के आरोप भी लगाए गए हैं।
मिसौरी के अटॉर्नी जनरल एरिक शमिट की ओर से दायर मुकदमे में आरोप है कि चीन की सरकार ने कोविड-19 के खतरे और उसकी संक्रामक प्रकृति के बारे में दुनिया से झूठबोला जिसके कारण यह संक्रमण फैलते हुए वैश्विक महामारी में बदल गया। अटॉर्नी जनरल के अनुसार वायरस की वजह से और इसे रोकने की कार्रवाई में मिसौरी को अरबों डॉलर का नुकसान हुआ है। मुकदमें के जरिये मिसौरी ने इस नुकसान की भरपाई के लिए चीन से क्षतिपूर्ति मांगी है। चीन की सरकार, सत्तारूढ कम्यूनिस्ट पार्टी और कई संबंधित अधिकारियों तथा संस्थानों को इस मुकदमे में पक्षकार बनाया गया है। इससे पहले अमेरिका में ही अमेरिका के टेक्सास की कंपनी बज फोटोज, वकील लैरी क्लेमैन और संस्था फ्रीडम वाच ने मिलकर चीन सरकार, चीनी सेना, वुहान इंस्टीटयूट ऑफ़ वायरोलॉजी, इंस्टीटयूट के और चीनी सेना के मेजर के खिलाफ क्षतिपूर्ति का दावा करते हुए 20 ट्रिलियन डॉलर का मुकदमा किया है।
वादियों का दावा है कि चीनी प्रशासन की जैविक हथियार तैयार करने की कोशिशों के चलते यह वायरस फैला जिसके कारण उनके राज्य को जन और धन की भारी हानि हुई है, इसलिए क्षतिपूर्ति के रूप में उन्होंने 20 ट्रिलियन डॉलर का हर्जाना दिया जाना चाहिए। सवाल यह है कि इस तरह के मुकदमों से अमेरिका को हासिल क्या होगा। थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाये कि वास्तव में चीन इस वायरस के संक्रमण का जिम्मदार है, तब भी क्या अदालती कार्रवाई के जरिये अमेरिका चीन को दंडित करने में कामयाब हो सकेगा। ‘सूट डिप्लोमेसी’ के जरिये ट्रंप कंही अपने हित तो नहीं साध रहे हैं। अमेरिका के भीतर भी ऐसी ही आशंकाए है। मिसौरी डेमोक्रेटिक पार्टी के कार्यकारी निदेशक लॉरेन गेपफोर्ड ने अटॉर्नी जनरल द्वारा दायर मुकदमें को राजनीतिक स्टंट करार देते हुए कहा कि यह सब इस साल होने वाले चुनाव के लिए किया जा रहा है।
इससे पहले अमेरिकी कांग्रेस में भी चीन के खिलाफ मुकदमा दायर करने के लिए विदेशी संप्रभु प्रतिरक्षा अधिनियम (एफएसआईए) में संशोधन करने के लिए एक विधेयक पेश किया गया । विधेयक के पारित होने के बाद विदेशी संप्रभु प्रतिरक्षा अधिनियम में संशोधन होगा और उसके बाद ही अमेरिकी नागरिक कोरोना वायरस महामारी के कारण हुई जन धन की हानि का हर्जाना वसूल करने के लिए संघीय अदालत में चीन के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकेगें। हालांकि विधयेक में इस बात की भी गुंजायश रखी गयी है, कि अगर दोनों राज्य अपने दावों के निपटारे के लिए समझौता करते हैं, तब निजी मुकदमों को खारिज किया जा सकता है।
विदेशी राज्य आमतौर पर विदेशी संप्रभु प्रतिरक्षा अधिनियम (एफएसआईए) के तहत ऐसे सिविल सूट से प्रतिरक्षा के हकदार हैं। संप्रभु प्रतिरक्षा का यह सिंद्धात 1948 में यूनाइटेट किंगडम में एक अदालत के फैसले के बाद विकसित हुआ जो साम्यवादी चीन और उसकी सरकार को अमेरिका में मुकदमा चलाने से बचाता है। इस सिंद्वात के अनुसार कोई भी देश अपने राज्य के भीतर किसी दूसरे राज्य पर मुकदमा नहीं करेगा। इस सिद्धांत ने ही अमरीका और उसकी सरकार को दुनिया के भिन्न-भिन्न कोनो में की जाने वाली सैन्य कार्रवाई या राजनीतिक हस्तक्षेप से होने वाले नुकसान की भरपाई करने से बचाया है। साल 1952 तक अमेरिका इसी सिंद्धात की आड़ में दूसरे देशों की सरकारों की न्यायिक कार्रवाई से बचता रहा है। ऐसे में सवाल यह भी उठ रहा है कि अमेरिका एफएसआईए में संशोधन क्यों करना चाहता है।
यह सवाल इस लिए जरूरी हो जाता है, क्योंकि चीन के खिलाफ मुकदमा दायर करने का आधार साल 2016 में निर्मित जस्टिस अगेंस्ट स्पोंसर ऑफ़ टेररिज्म एक्ट(जेएएसटीए) में भी मौजूद है। आतंकवाद के प्रायोजकों के खिलाफ न्याय कानून में यह साफ किया गया है कि किसी वायरस को छुपाने की कोशिश करने या उसे फैलाने को आतंकी गतिविधि माना जाएगा। कानून की भाषा से स्पष्ट है कि चीन का कृत्य जेएएसटी की जद में आता है, लेकिन इस बावजूद अमेरिका एफएसआईए में संशोधन का खेल खेल रहा है।
सबसे बड़ी आश्चर्यजनक बात तो यह है कि राष्ट्रों के कृत्यों और उनसे होने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय काम कर रहा हैं। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का दरवाजा खटखटाने की बजाए अमेरिका अपने ही देश के भीतर एक प्रांत को आगे कर चीन के खिलाफ ऐसी न्यायिक कार्रवाई का दिखावा कर रहा है, जिसका कोई अर्थ नहीं है। डब्ल्यूएचओ के संविधान को आधार बनाकर अमेरिका बड़ी सरलता के साथ अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में चीन के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकता है। डब्ल्यूएचओ के संविधान के अनुच्छेद 75 के अनुसार इस संविधान की व्याख्या या आवेदन से संबंधित कोई भी प्रश्न या विवाद जो बातचीत से या स्वास्थ्य सभा द्वारा सुलझाया नहीं गया है, उसे अंतरराष्टीय न्यायालय में भेजा जाएगा। इसके अलावा अनुच्छेद 56 के आधार पर भी अमेरिका चीन को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में खींच सकता है।
अनुच्छेद 56 में कहा गया है कि कानूनी देयता (मध्यस्थत के माध्यम से) केवल तभी तय की जा सकती है, जब देश इसके लिए सहमति देता है। लेकिन तमाम तरह के आरोपों व अमेरिका को अपने यहां जांच में सहयोग करने से इंकार के बाद निसंदेह मध्यस्थता वाला प्रावधान खत्म हो जाता है, ऐसे में अमेरिका सीधे-सीधे चीन के कृत्य के विरूद्ध अंतरराष्ट्रीय न्यायलय में जा सकता था। अंतरराष्ट्रीय कानून में एक खिडकी और भी थी जिसके जरिये भी अमेरिका चीन को विश्व अदालत में घसीट सकता था। डब्ल्यूएचओ के अंतरराष्ट्रीय स्वास्थय विनियम-2005 में यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि चीन ने अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का उल्लंघन किया है। विनियम के नियम 6 और 7 संबंधित देश पर समय रहते अधिसूचना और सूचनाओं को साझा करने का दायित्व डालते हैं। लेकिन चीन ने ऐसा बिल्कुल नहीं किया।
इसके विपरीत चीन ने अपने डॉक्टरों और स्वास्थय कर्मियों द्वारा दी गई उन सूचनाओं को बलपूर्वक दबाया जिसमें उन्होंने कोरोना वायरस खतरनाक संक्रमण की जानकारी दी थी। इसके अलावा 1925 में हुई जैविक हथियारों के विकास और भंडारण को प्रतिबंधित करने वाली अंतरराष्ट्रीय संधि के पालन के आधार पर भी चीन के खिलाफ लगाए गए आरोपों की जांच हो सकती थी। चीन पूरी दुनिया में अपने खतरनाक वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए जाना जाता है, इस लिए कोरोना वायरस को जैविक हथियार के तौर पर लैब में निर्मित करने की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऐसा तो हो नहीं सकता है कि अमेरिकी विधि विशेषज्ञों को उक्त कानूनी प्रांवधानों की जानकारी नहीं रही होगी। फिर क्या वजह है कि अमेरिका चीन के विरूद्ध अंतरराष्ट्रीय न्यायलय में जाने से कतरा रहा है।
यह अलग बात है कि अंतरराष्ट्रीय न्यायलय के किसी फैसले को चीन स्वीकार करता या नहीं करता। इतिहास गवाह है कि सामयवादी चीन ने अंतरराष्ट्रीय विधि को हमेशा अनमने ढंग से ही स्वीकार किया है। साल 2016 में दक्षिण चीन सागर मामले में अंतरराष्ट्रीय न्यायलय के निर्णय को मानने से इंकार करके चीन पहले ही अंतरराष्ट्रीय जगत को बता चुका है कि उसकी साम्यवादी सरकार अंतरराष्ट्रीय विधि या अंतरराष्ट्रीय न्यायलय के क्षेत्राधिकार से परे है। पूरे मामले में चिंताजनक पहलू तो यह है कि अमेरिकी संघीय न्यायालय में दायर मुकदमों से चीन के पीपुल्स रिपब्लिक की सेहत पर कोई प्रभाव पड़ेगा या नहीं यह तो बाद ही बात है, लेकिन किसी एक राज्य के राष्ट्रीय न्यायालय को यह निर्धारित करने की शक्ति दे देना कि क्या दूसरे राज्य ने अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन किया है, अंतरराष्ट्रीय कानून के स्थापित सिद्धातों को कमजोर बनाएगा।

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