केंद्र सरकार के विवादित तीनों कृषि कानूनों की वापसी का बिल संसद के दोनों सदनों में पास हो गया है। केंद्र सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम भले ही देरी के साथ है परन्तु दुरुस्त है। अब बात कम से कम भाव (एमएसपी) की कानूनी गारंटी की है। किसान संगठनों ने ऐलान किया है कि एमएसपी पर कानून बनने तक धरना जारी रहेगा। यहां केंद्र सरकार को स्पष्ट और जल्दी फैसले लेने की जरुरत है। कृषि कानूनों की वापसी में बहुत समय निकल गया था। अब रफ़्तार का युग है सभी काम रफ़्तार के साथ होने चाहिए। खासकर खेती जैसे मामलों में जिस पर 60 प्रतिशत से अधिक आबादी निर्भर करती है, सालों नहीं लगने चाहिए और न ही सरकार को किसी दुविधा में रहने की जरुरत है। जहाँ तक एमएसपी का सम्बन्ध है पहले ही 23 फसलों पर एमएसपी लागू है। इसी तरह दालें एमएसपी से ऊपर बिक रही हैं।
एमएसपी का लाभ पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों को पहले ही मिल रहा था। वास्तव में भविष्य में एमएसपी का फायदा उन राज्य के किसानों को मिलेगा जो दशकों से व्यापारियों की लूट का शिकार हो रहे थे। व्यापारी बिहार और कई अन्य राज्यों से गेहूँ, धान की फसलें सस्ते भाव में खरीदकर पंजाब-हरियाणा की मंडियों में एमएसपी पर दौगुने रेटों पर बेच देते थे। किसान आंदोलन के विरूद्ध कुछ लोगों की तरफ से यह हास्यस्पद तर्क दिया जा रहा था कि सिर्फ छह फीसदी फसल ही एमएसपी पर बिकती है। उन्हें यह समझने की जरुरत है कि जो 94 प्रतिशत किसान एमएसपी न मिलने के कारण लूटे जा रहे थे उनको भी एमएसपी दिया जाए। यह भी तर्क दिया जाता था कि किसान आंदोलन सिर्फ खुशहाल किसानों का है इसका सीधा सा मतलब गरीब राज्य के किसानों को भी एमएसपी देकर खुशहाल किए जाने की जरुरत है।
वास्तव में एमएसपी का मामला पूरी तरह व्यवहारिक और आर्थिक है जिस पर किसी तरह के राजनैतिक फायदे-नुक्सान या, राजनैतिक प्रतिष्ठा के एहसास से बचने की जरुरत है। देश के पास पढ़े-लिखे किसान, नेता, कृषि यूनिवर्सिटियां, कृषि विशेषज्ञ और कृषि के साथ जुड़े अर्थशास्त्री हैं जिनकी सेवाएं लेकर हर मसले का हल निकाला जा सकता है। कृषि मामलों को विपक्षी पार्टियों के एजेंडे तक सीमित रखने की बजाय इसको किसानों के मामले के तौर पर सुलझाया जाए कृषि मामले को किसी राज्य विशेष या धर्म विशेष या भाषा विशेष के किसानों तक सीमित करने की जगह इसको देश के मुद्दे के तौर पर लिया जाना होगा।
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