कानून वापसी से भी खत्म नहीं हुई कृषि समस्याएं

करीब एक वर्ष बाद आखिर केंद्र सरकार ने विवादित तीन कृषि कानून वापिस ले लिए हैं। किसानों के विरोध और बढ़ रहे टकराव के मद्देनजर वापिसी के निर्णय को लेकर केंद्र सरकार ने सही कदम उठाया है। इस घटनाक्रम को बेशक किसान संगठन अपनी जीत बता रहे हैं लेकिन इससे कृषि मुद्दे पर चर्चा का अंत नहीं बल्कि शुरूआत होनी चाहिए। अगला सवाल यह भी है कि क्या कानून वापिसी के बावजूद वर्तमान और भविष्य की चुनौतियों का सामना कृषि सैक्टर कर सकेगा? चुनौतियों का सामना करने के लिए सरकार और किसानों दोनों को किस प्रकार की नीतियां और तैयारियों के साथ काम करना होगा, इसको लेकर भी विचार करने की आवश्यकता है।

जहां तक कानूनों की वापिसी को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना तर्क रखा है कि वह (सरकार) किसानों को कानूनों के फायदों के बारे में समझा नहीं सके। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार शोध के लिए भी तैयार थी, यहां प्रधानमंत्री की टिप्पणी पर प्रसिद्ध अर्थशास्त्री गुरचरण दास की टिप्पणी बहुत सार्थक सिद्ध होती नजर आ रही है। वह कहते थे कि मोदी सरकार कानूनों को बेच नहीं सकी, अर्थात इन कानूनों का प्रचार नहीं किया जा सका फिर भी इस बात की तसल्ली है कि किसानों और सरकार ने अधिक से अधिक शांतमयी तरीके से चलने की कोशिश की। आंदोलन हिंसक नहीं हुआ। यहां केंद्र व राज्य के अधिकारों का कानूनी पहलू भी चर्चा करने वाला है। वापिस हुए कानूनों को लेकर गैर-भाजपा की सरकारों वाले राज्यों और किसान संगठनों का तर्क था कि कृषि राज्यों का विषय है।

केंद्र सरकार कानून बना ही नहीं सकती, भविष्य में इस तकनीकी उलझन को दूर करने का प्रयास होना चाहिए। दरअसल कानून लोकमत का अधिकार माना जाता है। यहां कानून निर्माण संंबंधी भी एक नई चर्चा छिड़ सकती है कि किसी भी कानून के निर्माण के वक्त लोक भावना को कैसे मद्देनजर रखा जाए। हमारे देश में स्विट्जरलैंड की तरह सीधी लोकतंत्र प्रणाली नहीं बल्कि लोगों के चुने हुए नुमाइंदे कानून बनाते हैं। जब लोग किसी कानून के खिलाफ हो जाएं तब उस कानून की सार्थकता क्या रह जाएगी, लोकतंत्र में इस स्थिति को भी सोचना होगा। इस मामले में विधान पालिका विशेष तौर पर सरकारी पक्ष को कानून के निर्माण के समय इसके सामाजिक, आर्थिक, एतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं के प्रति सजग रहना होगा। अधिकतर कानूनी मामलों को राजनीतिक नजरिए से ही देखा जाता है। कानून की मूल भावना का उद्देश्य लोकहित ही हो, अध्यादेश हंगामेदार परिस्थितियों की आवश्यकता होता है। अध्यादेश सहायक है, कानून नहीं।

 

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