मोदी सरकार ने कृषि के क्षेत्र में बड़े बदलाव और किसानों के हितों के मद्देनजर तीन बिल संसद के मानूसन सत्र में पास कराये हैं। इन कृषि बिलों को लेकर विपक्ष सरकार से खासा नाराज है। संसद से लेकर सड़क तक विपक्ष इन बिलों का विरोध कर रहा है।
विपक्ष का आरोप है कि ये बिल किसान विरोधी हैं। ये बिल किसानों की गुलामी का दस्तावेज हैं। इन बिलों के कानून बनने के बाद किसान प्राईवेट कंपनियों के हाथों की कठपुतलियां बनकर रह जाएंगे। किसान मालिक से गुलाम की हैसियत में आ जाएंगे। विपक्ष के लंबे चौड़े दावों के उलट पंजाब, हरियाणा के अलावा देश के किसी अन्य राज्य में किसान आंदोलित नहीं दिख रहे हैं। हां वो अलग बात है कि विपक्ष किसानों को घेरकर, उन्हें नये कानूनों का डर दिखाकर सड़कों पर उतारने की कोशिशों में लगा हुआ है। कृषि बिलों पर अपना विरोध जताते हुये बीजेपी के सबसे पुराने सहयोगी-अकाली दल के कोटे की केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने त्यागपत्र तक दे दिया। वो अलग बात है कि अकाली दल का विरोध सियासी अधिक है।
इस बिल में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जहां किसानों और व्यापारियों को मंडी से बाहर फसल बेचने की आजादी होगी। प्रावधानों में राज्य के अंदर और दो राज्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने की बात कही गई है। मार्केटिंग और ट्रांस्पोर्टेशन पर खर्च कम करने की बात कही गई हैं। इस विधेयक में कृषि करारों पर राष्ट्रीय फ्रेमवर्क का प्रावधान किया गया है। ये बिल कृषि उत्पादों की बिक्री, फार्म सेवाओं, कृषि बिजनेस फर्मों, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जुड़ने के लिए सशक्त करता है। अनुबंधित किसानों को गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति सुनिश्चित करना, तकनीकी सहायता और फसल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फसल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी। किसान संगठनों का आरोप है कि नए कानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुकसान किसानों को होगा।
असल में देखा जाए तो नये कृषि कानूनों के माध्यम से मोदी सरकार ने किसानों के लिये आजादी के दरवाजें खोले हैं। ये दरवाजें पिछले 70 वर्षों से बंद थे। किसानों का एक बड़ा तबका इन कृषि सुधारों की मांग पिछले काफी लंबे समय से कर रहा था। मोदी सरकार ने किसानों की परेशानियों की मद्देनजर उन्हें उनका पूरा हक दिलाने की नीयत से कृषि के क्षेत्र में व्यापक सुधार करने की दिशा में ये बड़ा कदम उठाया है। अगर देखा जाए तो ये सुधार किसानों को बिचौलियों से मुक्ति दिलाएंगे। मौजूदा व्यवस्था के अनुसार फसलों की सरकारी खरीद पर आढ़तियों को औसतन 2.5 फीसदी कमीशन मिलती है और राज्य सरकार को भी खरीद एजेंसी से छह फीसदी कमीशन मिलती रही है। भय है कि कमीशन का यह कारोबार न खत्म हो जाए!
ये बिचैलिए खाद्यान्न के अलावा कृषि उपज भी खरीदते हैं और इसे थोक विक्रेताओं को ऊंचे दामों पर बेचकर मोटा मुनाफा कमाते हैं। ये बिचैलिए अक्सर जरूरतमंद किसानों को ऊंची ब्याज दर पर कर्ज देकर मनी लैंडिंग रैकेट भी चलाना शुरू कर देते हैं। किसान अपनी जमीन गिरवी रखकर इन निजी साहूकारों (ब्याज पर कर्ज देने वाले) से कर्ज लेते हैं। पंजाब में जितने किसानों ने खुदकुशी की, उनमें से अधिकतर के लिए जिम्मेदार इन बिचैलियों की ओर से चलाया जा रहा कर्ज देने वाले रैकेट ही है। प्रदर्शनकारियों को यह डर है कि एफसीआई अब राज्य की मंडियों से खरीद नहीं कर पाएगा, जिससे एजेंटों और आढ़तियों को करीब 2.5 फीसदी के कमीशन का घाटा होगा।
साथ ही राज्य भी अपना छह प्रतिशत कमीशन खो देगा, जो वो एजेंसी की खरीद पर लगाता आया है। पंजाब में कृषि से जुड़े 12 लाख से अधिक परिवार हैं और करीब 28 हजार पंजीकृत कमीशन एजेंट हैं। ऐसे में कृषि बिलों का विरोध करना अकाली दल की राजनीतिक मजबूरी भी है। पंजाब में कृषि विपणन मंडियों का बड़ा नेटवर्क है। किसान और मंडी के बीच एक पारिवारिक रिश्ता रहा है। हालांकि अपवाद के तौर पर किसानों के शोषण की कहानियां भी सुनी जाती रही हैं। प्रधानमंत्री ने देश के सामने संकल्प लिया था कि किसान की आमदनी दोगुनी सुनिश्चित की जाएगी।
बहरहाल कृषि सुधारों के तहत एक प्रयोगात्मक व्यवस्था सामने आ रही है-एक देश, एक कृषि बाजार। आम कारोबारी की तरह किसान भी अपने खेत, गांव, तहसील, जिला और राज्य से बाहर निकल कर देशभर में अपनी फसल बेचने को स्वतंत्र हो, तो इस पर सवाल और भ्रामक प्रचार क्यों किया जा रहा है? विपक्ष और बिचैलियों द्वारा मेहनतकश भोले भाले किसानों के बीच दुष्प्रचार किया जा रहा है कि जमींदारी प्रथा लौट आएगी और अंबानी, अडाणी नए जमींदार होंगे। जमींदारी प्रथा कानूनन समाप्त हो चुकी है और नए भारत में उसकी कोई संभावना नहीं है।
यदि कोई व्यापारी, कंपनी, बाजार और संगठन किसान की दहलीज या खेत तक आकर फसल के बेहतर दाम देना चाहता है, तो इसमें साजिश या शोषण की गंध क्यों आ रही है? ऐसे में अहम सवाल यह भी है कि कया देश अंबानी, अडाणी के आदेश से चलता है? यदि संसद के जरिए कोई नया कानून बना है, नई व्यवस्था तैयार की जा रही है, तो जवाबदेही सरकार की भी होगी। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और सरकारी खरीद की व्यवस्थाएं बरकरार रहेंगी, इस संदर्भ में हमें प्रधानमंत्री के सार्वजनिक आश्वासन पर भरोसा करना चाहिए। सरकारी खरीद एफसीआई और अन्य एजेंसियों के जरिए जारी रहेगी, तो तयशुदा दाम खंडित कैसे किए जा सकते हैं? सरकार ने अभी हाल ही में रबी की फसलों का एमएसपी का ऐलान बढ़े दामों के साथ किया गया है।
देश के जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी 15-16 फीसदी की है। करीब 60 फीसदी आबादी की आजीविका ही कृषि है। क्या इतनी विशाल अर्थव्यवस्था और कारोबार पर अदालतें भी आंख मूंद लेंगी? किसानों की असल मांग और आवाज सुनना सरकार का धर्म है। सरकार को किसानों की एक एक शंका का निवारण करना चाहिए। प्रधानमंत्री को देश के धरतीपुत्रों को आश्वस्त करने की एक और पहल करनी पड़ेगी। इस बात की काफी प्रबल संभावना है कि इस महीने के अन्तिम रविवार को ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री किसान भाईयों की शंकाओं का निवारण अवश्य करना चाहेंगे।
डॉ. श्रीनाथ सहाय
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