जानलेवा मारपीट होती जा रही है आम
दिसबंर के पहले पखवाड़े की नई दिल्ली के पांडव नगर और मयूर विहार में दो युवकों की रोडरेज (Why The Intersection Between This Is So Fierce Anger?) में हत्या अब कोई नई बात नहीं रही है। यह कोई अकेली दिल्ली की घटना भी नहीं है। इस तरह की रोडरेज की घटनाएं देश के किसी भी कोने में होना अब आमबात होती जा रही है। देश में जिस तरह से महंगाई की दर बढ़ रही है लगभग उसी तरह से रोडरेज की घटनाओं का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा है।
प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करें तो आम राह मारपीट और जान लेने की घटनाओं में औसतन प्रतिदिन तीन लोगों की जान जा रही है। केंन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय के आंकड़ों पर ही एक नजर डालें तो रोडरेज के मामलों की संख्या 5 लाख के करीब पहुंच गई है। हांलाकि यह आंकड़े 2016 के हैं पर यह भी साफ हो रहा है कि देश में इस तरह की घटनाओं की विकास दर सबसे उंची यानी की दस फीसदी तक पहुंच रही है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार तमिलनाडू, महाराष्टÑ, मध्यप्रदेश, केरल और उत्तरप्रदेश रोडरेज की घटनाओं में अग्रणी प्रदेश हैं।
यह अपने आप में गंभीर और चिंतनीय है कि सामान्य सी बात पर बीच राह सड़क पर हंगामा हो जाता है और एक दूसरे की जान (Why The Intersection Between This Is So Fierce Anger?) लेने में कोई देरी नहीं होती। जानलेवा मारपीट आम होती जा रही है। लगता है जैसे देश में अब संवेदनशीलता और सहनशक्ति जवाब देती जा रही है और गुस्सा और केवल गुस्सा ही रह गया है। मजे की बात यह है कि इस तरह की घटनाओं के पीछे कोई बड़ा कारण या आपसी रंजिश नहीं होती। लगभग मरने और मारने वाले दोनों का ही इरादा भी इस तरह का नहीं होता।
अपितु होता है तो केवल और केवल मात्र छोटी सी बात पर इस कदर गुस्से का हावी होना होता है कि दूसरे की जान तक लेने में देरी नहीं लगती। मजे की बात यहां तक है कि यह सब होता है केवल देरी से बचने के लिए। यानी की आगे वाले ने साइड नहीं दी, अचानक ब्रेक लगे और एक के बाद एक गाड़ियों का आपस में भिड़ते जाना, आगे जाम होने के कारण लगातार हार्न बजाते जाना या किसी कारण से हल्की सी टच हो जाना जैसी घटनाएं बीच चैराहे आपस में गाली-गलौच, गुत्थम गुत्थ और यहां तक कि गोली चलाकर या चाकू या अन्य हथियारों से या अन्य तरह से पीट पीट कर जान लेना सामान्य होता जा रहा है। आखिर इतना आक्रोश या यों कहें कि इतना गुस्सा या इतना उबाल क्यों? यह अपने आप में विचारणीय है।
सबसे अधिक मजे की बात यह है कि आज हम अपने आपको सबसे अधिक शिक्षित, समझदार, आधुनिकतम, दयाभावी कहने में नहीं हिचकते। जीव-जंतुओं तक के जीवन को बचाने के लिए आगे आने लगे हैं। सोशियल मीडिया पर तो जैैसे ज्ञान के भण्डारी ही बन गए हैं। एक से बढ़कर एक प्रवचन सूक्तियां सोशियल मीडिया पर पोस्ट होना आम होती जा रही है। यह सब होने के बाद भी बीच चौराहे जरा सी बात पर जानलेवा लड़ाई आम होती जा रही है। यहां यह साफ हो जाना चाहिए कि माव लिंचिंग या लिंचिंग तरह की घटनाओं को इससे अलग करके देखना होगा। यह तो सीधे-सीधे वह आक्रोश है जो बिना किसी सोच समझ के बीच सडक में छोटी सी बात पर विफर जाता है। आखिर इतना आक्रोश समाज में आ कैसे रहा है? लोगों की सामाजिकता कहां जाती जा रही है। मजे की बात यह कि इस तरह की घटनाओं के चश्मदीद लोग समझाइश के स्थान पर मूक दर्शक बने रह जाते हैं या फिर अब तो वीडियो बनाने में जुट जाते हैं, यह नहीं देखते कि समझा बुझाकर लड़ते हुए लोगों को अलग कर दें।
दरअसल आज हम दोहरी जिंदगी जीने लगे हैं। हमारी कथनी और करनी में अधिक अंतर आ गया है। आज हर व्यक्ति ज्ञानी होता जा रहा है। दुनिया में दूसरा कोई उससे अधिक ज्ञानवान हो ही नहीं सकता। सारी संवेदनाएं उसी में समाहित है। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आज के लोगों की, लोग इसलिए कह रहा हूं कि यह कमोबेस पूरे समाज की तस्वीर है और इसके लिए केवल युवाओं को ही दोष नहीं दिया जा सकता, सहनशक्ति जवाब दे गई है। गुस्से में आग बबूला होने में क्षण भर भी नहीं लगता। प्रतिस्पर्धा और मेरी कमीज दूसरे की कमीज से कम उजली क्यों की उदेड़बुन में केवल पैसा और पैसा की दौड़ में मानवीय संवेदना खोती जा रही हैं। प्रतिस्पर्धा और केवल प्रतिस्पर्धा की दौड़ में व्यक्ति आपा खोता जा रहा है। फिर संयुक्त परिवार का विघटन, एकल परिवार और उसमें भी पति पत्नी दोनों के नौकरीपेशा होने की स्थिति और अधिक गंभीर हो जाती है। देखा जाए तो सामाजिक ताना-बाना टूटने का ही परिणाम है कि रोडरेज की घटनाएं आम होती जा रही है। व्यक्ति की अपनी कुंठाएं और आए दिन की दौड़भाग अंदर की आग को आक्रोश में बदल देती है और लोग जरा सी बात पर मरने मारने को उतारु हो जाते हैं।
बिना आगा-पीछा सोचे एक दूसरे की जान लेने में क्षण भर भी नहीं सोचते। आखिर समाज जा किस दिशा में रहा है। केवल और केवल मात्र सुख सुविधाओं की दौड़ में लगे रहे और मानवीय संवेदनाएं इसी तरह से प्रभावित होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब समाज तेजी से विघटन की और बढ़ने लगेगा। एक बात साफ हो जानी चाहिए कि समाज विज्ञानियों को अभी से गंभीरता से इस तरह की मानसिकता में बदलाव की दिशा में काम करना होगा, नहीं तो आने वाली पीढ़ी हमें किसी हालत में माफ करने वाली नहीं हैं। युवाओं के दिल में बसे आक्रोश को सही व सकारात्मक दिशा देनी होगी। समाज विज्ञानियों व बुद्धिजीवियों के चेतने का समय आ गया है और उन्हें इन स्थितियों का निराकरण आज की परिस्थितियों में ही खोजना होगा। राजेन्द्र शर्मा
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