पूर्व क्रिकेटर व राज्यसभा सदस्य सचिन तेंदुलकर व फिल्म अभिनेत्री रेखा की सदन में अनुपस्थिति का मुद्दा फिर चर्चा का विषय बन गया है। 2012 से लेकर अप्रैल 2017 तक सचिन कामकाज के 348 दिनों में सिर्फ 23 दिन व रेखा 18 दिन ही उपस्थित रही हैं, जबकि दोनों सदस्य एक करोड़ से अधिक राशि वेतन के रूप में ले चुके हैं। इनके अतिरिक्त कई और नामजद सदस्यों का हाल भी ऐसा ही है। राज्यसभा में 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनित किए जाते हैं। इन सीटों की संवैधानिक अहमियत इस बात से है कि देश के गैर राजनीतिक सफल लोगों को सबसे बड़े सदन में आकर सेवा करने का मौका मिले, किन्तु ज्यादातर सदस्यों का रुझान यह रहा है कि उन्होंने संसद के कामकाज में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
इस बारे दशकों से चर्चा चलती आई है कि फिल्मी सितारों व कई अन्य क्षेत्रों से जुड़ी हस्तियों को प्रतिनिधिता तो दे दी जाती है, किन्तु वह अपने पद की जिम्मेवारी निभाने के लिए इच्छाशक्ति ही नहीं रखते। सदन में सार्थक बहस में भाग लेने, मुद्दे उठाने पर ही इस संवैधानिक पद की गरिमा है। यह सीट चुपचाप बैठने अथवा सदा ही अनुपस्थित रहने के लिए नहीं है। सदन में प्रतिनिधिता महज मान-सम्मान के लिए नहीं होनी चाहिए, बल्कि सदस्य की मौजूदगी संबंधी कम से कम उपस्थिति अनिवार्य बनाई जाए। गैर राजनीतिक हस्तियां देश के विकास में बेहतर रोल अदा कर सकती हैं।
नामांकित सदस्यों को मिलने वाले वेतन व मान देय पर करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हैं तो उनके पदों को सिर्फ नाम की सीट ना बनाया जाए। बेशक सदन के सदस्य अनुपस्थित सदस्यों को बुलाने संबंधी पत्र लिख सकते हैं, किन्तु संविधान में संशोधन करके ऐसी तजवीज की जानी चाहिए कि सदन के सदस्यों की उपस्थिति संबंधी कोई ठोस जवाबदेही बनाई जा सके। लोगों की खून पसीने की कमाई से चलने वाली संसद की कार्रवाई जन हित के काम भी आ सके। केन्द्र व राज्य सरकारें अपने विभिन्न प्रोग्रामों के लिए ब्रांड अंबेसडर भी फिल्मी हस्तियों को नियुक्त कर देती हैं, किन्तु उक्त हस्तियों का उन्हें दिए गए क्षेत्रों से संबंधित कोई अनुभव अथवा शौंक ही नहीं होता। इसी कारण सरकार अपने ब्रांड अंबेसडर के माध्यम से अपनी योजना को लोकप्रिय बनाने व उसके सार्थक परिणाम हासिल करने में सफल नहीं होती। ब्रांड अंबेसडर भी उन हस्तियों को बनाया जाए, जो अपने क्षेत्र के साथ न्याय कर सके, समय दे सकें।
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