- सभी मिलकर चले और समाज में व्याप्त बुराईयों को करें समाप्त
बरनावा (सच कहूँ न्यूज)। पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां ने फरमाया कि किसी चीज का गुलाम मत बनो, बल्कि चीजें आपकी गुलाम हों, कि भई आप अपनी इच्छानुसार स्वयं को बदल सकते हैं। यकीन मानिये जब छोटी उम्र में आप ये शुरू कर देंगे करना तो पूरी लाइफ में मजे लेंगे, खुश रहेंगे। तो आदमी को कभी भी अपने जमीर की आवाज को मारना नहीं चाहिए। कई बार जमीर की आवाज को लोग खत्म कर देते हैं। झूठ बोलना, कूफर तोलना, बातों का गलत मतलब निकालना, और उसका कारण क्या होता है? माया रानी। बुरा ना मनाना, अदरवाइज जमीर कहां मर गया इन्सान का? वो सच बोलने से डरता क्यों है? किस लिए?
पूज्य गुरु जी ने फरमाया कि हर आदमी का कार्म करने का तरीका होता है। आप बच्चे हैं, पढ़ते-लिखते हैं, स्कूल-कॉलेज जाते हैं। दुकानदार हैं, वो क्या करेगा? दुकानदारी का काम। अब जमींदार हैं, किसान हैं, वो खेतों में जाकर अपना काम करेंगे। बिजनेसमैन, व्यापारी अपने व्यापार में जाएगा। तो अपने घर से इस तरह से हर कोई काम करने जाता है। क्योंकि वो घर का मुखिया है, उस पर सारे घर के खर्चे टिके हुए हैं, सारे घर की आमदन टिकी हुई है। दूसरे शब्दों में, सारे परिवार की रोजी-रोटी का सवाल है जी। जो बिजनेस-व्यापार बड़े हो जाते हैं। बच्चों का तो एक मकसद होता है, पढ़ाई अच्छी करनी है और पढ़ाई अच्छी करके, अच्छे आॅफिसर रैंक तक जाना है, नहीं बच्चो! एक बात और याद रखना, सिर्फ यहीं बस ना करना, आपका फ़र्ज है कि पढ़-लिखकर सबसे पहले इन्सानियत को बुलंद करना, जो मरती जा रही है। इन्सानियत ना मरने पाए।
क्या है इन्सानियत?
आपजी ने फरमाया कि इन्सानियत कहते किसे हैं? किसी को भी दु:ख-दर्द में तड़पता देखकर, किसी को मतलब पशु, पक्षी, परिंदा, आदमी। किसी को भी दु:ख-दर्द में तड़पता देखकर उसके दु:ख-दर्द में शामिल होना और अपने तरीकों से उसके दु:ख-दर्द को दूर करने की कोशिश करना, ये ही सच्ची इन्सानियत है। प्रभु का नाम भी लेना। तो इन्सानियत के ज़ज्बे को कभी खत्म ना होने देना।
कभी भी बिकाऊ मत बनो
पूज्य गुरु जी ने फरमाया कि आप बिकाऊ नहीं होने चाहिए, बल्कि अनमोल होने चाहिए। अनमोल कौन होता है? जिसके कायदे बड़े होते हैं, जिसके अपने उसूल ऊँचे होते हैं। पूरे समाज के लिए होते हैं। अब हर आदमी, जैसे आपको बोला कि दुकानदार ये करता है, खेती-बाड़ी वाला ये, बच्चे पढ़ना, तो हर कोई लगा हुआ है। ऐसे ही संत जब अपने घर में आते हैं, कहीं भी जाते हैं, उनका एक ही मकसद होता है ज़िंदगी का, सबका भला करना। हर कोई आता है, जाता है अपने परिवारों को संभालने, तो संतों का परिवार तो प्रभु की सारी सृष्टि है, वो उसको सुधारने में लगे रहते हैं। कौन क्या कहता है? कौन क्या बोलता है? वो उसकी मर्जी। हर कोई मर्जी का मालिक है।
कोई किसी को कुछ नहीं कह सकता। लेकिन संतों का मकसद एक ही होता है, सबका भला करना और सबका भला मांगना। क्यों? क्योंकि वो भगवान से बेइंतहा प्यार करते हैं। जो ओउम, हरि, अल्लाह, वाहेगुरु से प्यार करता है वो उसकी बनाई सृष्टि से कभी नफ़रत नहीं कर सकता। चाहे कोई गालियां दे, चाहे कोई सत्कार करे, उनके लिए कोई मतलब नहीं है इन चीजों का। उनका मकसद सबका भला करना है और सबको हाथ जोड़ना होता है कि भला आप भी करो। चलो समाज में मिलकर चलें, पूरे समाज की सफाई करें, पूरे समाज में से बुराइयां निकालें, पूरे समाज की गंदगी को दूर करवाएं। सारे मिलकर तो यकीन मानो, आप सबको वो असीम सुख मिलेगा, परमानंद मिलेगा, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती।
सुख-दु:ख दो गहने हैं
पूज्य गुरु जी ने आगे फरमाया कि ब्रह्मचर्य में सीखने के लिए बहुत ही जरूरी है, छोटी उम्र में इन बातों के आप धनी बन जाओ। यकीन मानो अपने आत्मसम्मान के लिए जीना कोई गलत जीना नहीं है। लेकिन ये मत सोचो कि हार गए तो सब कुछ ही चला गया, जी नहीं, ज़िंदगी में हार आएगी नहीं तो जीत की खुशी कहां से हासिल कर लोगे? ज़िंदगी में दु:ख आएगा नहीं तो सुख कैसे मिलेगा? कैसे महसूस होगा कि सुख क्या होता है? तो ये ईश्वर ने, भगवान ने ये गहने बनाए हैं कि दु:ख और सुख आता-जाता रहता है। परम पिता शाह सतनाम जी दाता रहबर ने एक भजन भी बनाया है, ‘‘सुख-दु:ख दो गहने हैं जिसे हर जीव पहनें है।’
’, कि ऐसे सुख का आना, दु:ख का जाना या सुख का जाना, दु:ख का आना, ये लगा रहता है जीवनभर, लेकिन सच्चे भक्तजन वो होते हैं, सच्चा इन्सान वो होता है, जिसको तमीज ना रहे, खुशी में इतने ना उछलने लग जाओ कि जब दु:ख आए तो संभाले ना संभले और बीमार पड़ जाओ। और दु:ख में इतने बीमार मत पड़ो कि जब सुख आए तो आप उठ ही ना पाओ, उसका स्वागत कर ही ना पाओ। तो चाहे दु:ख आए, चाहे सुख आए आदमी को तमीज ना रहे, उसे ही सच्चा भक्त कहते हैं, उसे ही कर्मयोगी या ज्ञानयोगी कहते हैं।
क्या है संतोष धन?
पूज्य गुरु जी ने फरमाया कि तो ये ब्रह्मचर्य की बात कर रहे थे तो इसके बाद आता है गृहस्थ आश्रम। गृहस्थ आश्रम में इन्सान को संयम का प्रयोग करना चाहिए। क्या है ये संयम? क्या है संतोष? या संतोख धन, अलग-अलग धर्मों में नाम दिया गया है। जो आपके पास है उससे सुख लो और समाज को सुख दो। आपके पास जो नहीं है उसके लिए कड़ा परिश्रम, मेहनत, हक-हलाल, दसां नहुआं दी कीरत, हार्ड वर्क करो और राम का नाम जपो तो यकीन मानो जो नहीं है वो भी आ सकता है। पर जो है उसका सुख तो ले लो और समाज को दे दो। इसी का नाम संतुष्टि है, इसी का नाम संतोष धन है।
सही और गलत कर्म का ज्ञान जरूरी
पूज्य गुरु जी ने फरमाया कि संतुष्टि का मतलब ये नहीं होता कि हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाओ, जी नहीं। कर्म करते जाइये, लेकिन ज्ञानयोगी बनकर। बिना ज्ञान के कर्म अधूरा है। कर्म तो सारे ही करते हैं। जैसे आपको कल-परसों बताया था, अब बकरे का गला काटता है वो भी कर्म है। कर्म का मतलब काम-धंधा करना। कोई भी कर्म, फावड़ा चलाना ये भी कर्म है। किसी को गलत गालियां देता है, है तो वो कर्म, वो बुरा कर्म है। तो ये ज्ञान तो होना चाहिए कि सही कर्म कौन सा है और बुरा कर्म कौन सा है। इसलिए ज्ञानयोगी बनो और कर्मयोगी बनो। ये हमारे पवित्र वेदों में लिखा है। और सेम थिंग (समान बात) सभी धर्मों में लिखा हुआ मिला।
क्योंकि पुरातन हमारे धर्मों में पवित्र वेद आते हैं। आज अगर साइंस के नजरिये से कहें तो 12 हजार साल पुराने तो हैं ही, कम से कम। धर्म की बात करें तो आदिकाल से चले हुए हैं। तो उनमें जो लिखा है, वो बाकी धर्मों में क्या लिखा हुआ है, ऐसा ही लिखा हुआ है, बिल्कुल ऐसा ही, कि मेहनत की खाओ, अल्लाह की इबादत करो और हक हलाल की खाओ। वही कर्मयोगी और ज्ञानयोगी। दसां नहुआं दी कीरत करो और वाहेगुरु का नाम जपो। गॉड्स प्रेयर करो और हार्ड वर्क करो। यानि सारे धर्मों में एक ही चीज है कि कर्मयोगी बनो और ज्ञानयोगी बनो। यकीन मानों ज़िंदगी में सुख आज नहीं तो कल जरूर आएंगे।
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