कानपुर वाले दुर्दान्त गैंग्स्टर विकास दूबे के अपराधों की कहानी लंबी है। उसके ऊपर 60 से अधिक मामले चल रहे थे और शुक्रवार को पुलिस के साथ तब मुठभेड में उसका अंत हो गया जब पुलिस उसे उज्जैन से कानपुर ला रही थी और रास्ते में उसने भागने का प्रयास किया। इससे पूर्व विकास दूबे ने 8 पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतारा था किंतु इसके आठ दिन के भीतर उसका भी अंत हो गया है। कोई मूर्ख व्यक्ति ही इस बात पर विश्वास करेगा कि पुलिस द्वारा दूबे को आत्मरक्षा में मारा गया जब दूबे पुलिस पर गोली चलाकर भागने का प्रयास कर रहा था। इस मुठभेड के बारे में यह स्पष्टीकरण हास्यास्पद है और इससे उत्तर के बजाय अनेक प्रश्न उठते हैं।
दूबे दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान के सील बॉर्डर को पार करके इन राज्यों में कैसे आया जबकि पुलिस उसके पीछे पडी हुई थी। क्या उसका आत्मसमर्पण एक नाटक था? उसको हथकड़ी क्यों नहीं लगायी गयी थी? आठ पुलिसकर्मियों को मारने के बारे में उसकी शेखियां क्या बताती हैं? प्रश्न यह भी उठता है कि क्या यह मुठभेड राजनीति की बड़ी मछली को बचाने के लिए की गयी? क्या यह मुठभेड उन साक्ष्यों को नष्ट करने के लिए की गयी जो उसके राजनीतिक दलों और राजनेताओं के साथ संबंधों को बताते थे? कौन चाहता था कि दूबे के साथ उनके संबंधों का खुलासा न हो? दूबे की कॉल रिकार्ड को सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया? उज्जैन से कानपुर लाते हुए दूबे की कार को क्यों बदला गया? मुठभेड़ से कुछ मिनट पूर्व पुलिस द्वारा मीडिया की गाडियों को क्यों रोका गया?
आज कोई भी दूबे के अपराधों और उसे संरक्षण देने वाले नेताओं के बारे में कुछ नहीं बोलना चाहता है। कुछ लोगों का मानना है कि दूबे खादी और खाकी वालों के बहुत सारे रहस्यों को जानता था और इन रहस्यों पर पर्दा पडा रहे इसलिए उसको मार दिया गया। इस बात की पुष्टि दूबे द्वारा मारे गए डीएसपी द्वारा मार्च में कानपुर के एसएसपी को लिखा गया पत्र करता है जिसमें उन्होंने चेतावनी दी थी कि खाकी और गैंग्स्टर के बीच सांठगांठ है और पुलिस बल में उसके मुखबिर हैं। कुछ लोगों का मानना था कि इसका कारण राज्य की राजनीति में वर्चस्व के लिए ब्राहमण, ठाकुर टकराव के कारण यह हुआ क्योंकि राज्य का मुखिया ठाकुर योगी आदित्यनाथ है और दूबे को राबिनहुड माना जाता है जिसका कानपुर के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में एक लाख से अधिक ब्राहमण वोट बैंक पर प्रभाव था। अपने गांव विकरू की पंचायत पर दूबे का पिछले 18 सालों से नियंत्रण था। पहले वह प्रधान रहा और फिर उसके परिवार के सदस्य पंचायत सदस्य रहे। उनकी पत्नी समाजवादी पार्टी की सदस्या थी। दूबे के राजनेताओं और उच्च सरकारी अधिकारियों के साथ फोटो हैं। 1990 में एक हत्या के मामले में सभी गवाह जिनमें अधिकतर पुलिसकर्मी थे अपनी गवाही से मुकर गए।
इसी तरह 2001 में भाजपा के राज्य मंत्री के मामले में सभी गवाह पलट गए और भाजपा सरकार ने इस मामले में अपील भी नहीं की। 2006 में उसके विरुद्ध 50 मामले थे और उसे जमानत पर रिहा किया गया। 2017 में उसे हत्या के मामले में गिरफ्तार किया गया किंतु गवाह न मिलने के कारण 2019 में उसे रिहा किया गया। स्पेशल टास्क फोर्स की राज्य में 30 बड़े अपराधियों की सूची में उसका नाम नहीं था। यहां तक कि जिले के 10 बडे अपराधियों की सूची में भी उसका नाम नहीं था। 2001 में बसपा के सरंक्षण में वह राजनीतिक रूप से दबंग बन गया। 2012 में वह समाजवादी पार्टी की शरण में चले गया और वर्तमान में कथित रूप से उसके भाजपा के साथ संबंध थे और वह 2022 में विधान सभा चुनाव लडने की तैयारी कर रहा था।
दूबे का मामला हमारी गिरती राजनीतिक संस्कृति और राजनेताओं, अपराधियों तथा पुलिसकर्मियों के बीच सांठगांठ का प्रतीक है जो उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति का अभिन्न अंग है। यहां पर बाहुबली सभी राजनीतिक पार्टियों में अपने राजनीतिक माई-बापों को आर्थिक सहायता देते हैं और उसके बदले में संरक्षण प्राप्त करते हैं तथा महाराष्ट्र के अरूण गवली की तरह उनमें से कई विधायक बन जाते हैं और उन्हें बुलेट प्रूफ जैकेट भी मिल जाती है। कमजोर पुलिस और कानूनी व्यवस्था के कारण माफिया से नेता बने लोग हत्या के मामलों में बरी हो जाते हैं। वे कानून द्वारा शासन करते हैं, बिना भय के बल का प्रयोग करते हैं, वसूली करते हैं और अपने आप मामलों का निर्णय करते हैं। ईमानदार उम्मीदवारों को चुनाव मैदान से हटाने के लिए पैसे का प्रयोग करते हैं। जो जीता वो सिकंदर के इस वातावरण में अपराधियों और पुलिस के बीच लेनदेन का संबंध बन जाता है। आज हमारे देश में राजनीतिक दल अपराधियों को अपना चुनाव उम्मीदवार बनाते हैं और जिसके चलते सत्ता के गलियारों में ये अपराधी विधायक और सांसद बनकर पहुंच जाते हैं।
एक आकलन के अनुसार किसी भी राज्य में मोटे तौर पर किसी भी चुनाव में 20 प्रतिशत उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के होते हैं। उत्तर प्रदेश में 403 विधायकों में से 143 अर्थात 36 प्रतिशत विधायकों की आपराधिक पृष्ठभूमि है। इसी तरह बिहार में 243 विधायकों में से 142 अर्थात 58 प्रतिशत विधायकों की आपराधिक पृष्ठभूमि है और उनमें से 70 के विरुद्ध आरोप पत्र दायर कर दिए गए हैं। जब ऐसे लोग विधायक बनेंगे तो फिर हम देश से अपराध की समाप्ति की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? हैरानी की बात यह है कि आज अपराधी राष्ट्रीय या राज्य स्तर के चुनावों में ईमानदार उम्मीदवारों को खदेड देते हैं। एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार 24.7 प्रतिशत ईमानदार उम्मीदवारों की तुलना में 45.5 प्रतिशत आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार विजयी होते हैं और इनकी संख्या बढती जा रही है।
भारत में मध्यम वर्ग को अपराधियों को चुनने में कोई आपत्ति नहीं हैं बशर्तें कि वे उनके संरक्षक बनें और कुछ काम करें। ऐसे वातावरण में जहां पर सत्ता संख्या खेल बन गयी हो वहां पर इस बात पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि माफिया डॉन नेता का टैग प्राप्त करने के लिए भारी राशि क्यों खर्च करता है क्योंकि यह राजनीतिक सत्ता का उपयोग कर वसूली जारी रखने का टिकट बन जाता है। उनका प्रभाव बढ जाता है और यह सुनिश्चित करता है कि उनके विरुद्ध मामले समाप्त किए जाएं। इसके अलावा राजनीतिक निवेश पर प्रतिफल इतना अधिक है कि अपराधी किसी अन्य जगह निवेश करने के इच्छुक नहीं रहते हैं।
कुल मिलाकर हमारी व्यवस्था ने जाने अनजाने अपराधियों को राजनीति में प्रवेश करने के लिए एक बड़ा प्रोत्साहन दिया है। जिसके चलते आज स्थिति यह बन गयी है कि हमारे जनसेवक जनता की कीमत पर अपने अंडरवर्ल्ड आकाओं की धुन पर थिरकते हैं और अपराधी बने नेताओं के कारण लोकतंत्र तीन बॉक्स में सीमित हो गया है। माफिया बॉक्स, कार्टिज बॉक्स और बैलेट बॉक्स। अपराधियों और राजनीतिक दलों की सांठगांठ से एक दूसरे को लाभ होता है। आप अपराध के इस राजनीतिकरण को हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विकास का एक चरण कह सकते हैं।
किंतु त्रासदी यह है कि हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली को अपराधियों ने हड़प लिया है। चाहे वो छोटे मोटे ठग हों, 10 नंबरी हों या माफिया डॉन। आज महत्वपूर्ण सिर्फ यह बात रह गयी है कि अपराधी किसकी ओर हैं उनकी या हमारी। सभी एक जैसे हैं केवल 19-20 का फर्क है। इस संबंध में निर्वाचन आयोग साधुवाद का पात्र है जो उच्चतम न्यायालय के फरवरी के आदेश को लागू करने जा रहा है जिसमें पार्टियों को निर्देश दिया गया है कि वे आगामी विधान सभा चुनावों में गरिमापूर्ण नागरिकों के बजाय आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को क्यों टिकट दे रहे हैं। केवल उम्मीदवार की जीत की संभावना से उसे टिकट नहीं दिया जाना चाहिए। उसे लोगों को प्रकाशित सामग्री द्वारा समझाना होगा कि उसकी योग्यता, उपलब्धि और गुण क्या हैं। उसके विरुद्ध कितने आपराधिक मामले चल रहे हैं और मतदाताओं को एक सुस्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत करनी होगी।
दूबे की मौत से एक बाहुबली की कहानी का पटाक्षेप हो गया हो किंतु समय आ गया है कि इस बात की जांच की जाए कि ऐसे लोगों के गैंग निर्भय होकर किस तरह फलफूल रहे हैं और इसके लिए पुलिस और निर्वाचन काूननों में बदलाव किया जाना चाहिए ताकि राजनीति का अपराधीकरण रूके। संवैधानिक लोकतंत्र में आमूल-चूल बदलाव की आवश्यकता है। दूबे की हत्या न केवल योगी सरकार के लिए एक कसौटी है अपितु अन्य राज्यों के लिए भी यह एक कसौटी है कि बाहुबली के मामलों से किस तरह निपटा जाता है क्योंकि हमारे राजनेता राजनीति से अपराधियों का सफाया करने और कानून और व्यवस्था को बहाल करने के बारे में बडी बडी बातें करते रहते हैं। एक अपराधी को दोषीसिद्ध करने के लिए उसके ऊपर हत्या के कितने आरोप होने चाहिए? क्या राजनीति से अपराध का सफाया किया जा सकेगा अन्यथा आज के अपराधी किंगमेकर कल के शासक बन जाएंगे।
पूनम आई कौशिश
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