अब तक सुना था कि पक्षी ही प्रवास यात्राओं पर सारी सीमाओं का उल्लंघन कर निकलते हैं, पर नए वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है कि टिड्डी एवं अन्य कीट-पतंगे भी पक्षियों की तरह समूहों में प्रवास यात्राएं करते हैं। हालांकि इनमें टिड्डियों को छोड़ ज्यादातर कीटों की यात्राएं पक्षियों की तरह लंबी नहीं होती हैं। क्योंकि पक्षियों की तुलना में इनकी उम्र कम होती है, इसलिए इनमें से ज्यादातर कीट गंतव्य से लौटकर अपने पुराने ठिकानों पर नहीं पहुंच पाते।
अनेक दिग्गज वैज्ञानिकों में मतभेद है कि टिड्डी एवं कीड़े-मकोड़ों की इन यात्राओं को प्रवास यात्रा कहा जाए या नहीं? टिड्डी भी बड़े समूहों में प्रवास यात्रा पर निकलती हैं। जैसा कि हम वर्तमान में आधे से ज्यादा भारत में इनके बिन बुलाए मेहमान के संकट से दो-चार हो रहे हैं। टिड्डी भी अपनी यात्राओं से लौटती नहीं हैं? इसलिए वैज्ञानिक इनकी यात्रा को प्रवास यात्रा नहीं मानते हैं।यात्रा में निकली टिड्डियां आखिर में मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैं। टिड्डी की अनेक प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा अफ्रीका में पाई जाती हैं। वहीं से ये यूरोप व एशियाई देशों की प्रवास यात्राओं पर निकलती हैं। टिड्डी आमतौर से अकेले रहने की आदि होती हैं। परंतु प्राकृतिक प्रकोप के कारण जब भोजन का अभाव हो जाता है तो ये एक स्थान पर एकत्रित होने लगती हैं। ये ऐसे स्थानों पर इकट्ठा होती हैं, जहां पानी के स्त्रोत अथवा नमी होती है। यहीं ये प्रजनन क्रिया संपन्न करती हैं और मादाएं अण्डों की दो-तीन थैलियां जनती हैं। एक थैली में 70-80 अण्डे होते हैं। इन अण्डों से बच्चे निकलने के बाद टिड्यिों का समूह बहुत बड़ा हो जाता है और इन्हें आवास व आहार का अभाव खटकने लगता है।
इस समस्या से मुक्ति पाने के लिए ये दल समूहों में प्रवास यात्राओं पर निकल पड़ते हैं। इनके झुण्ड कई वर्ग किमी क्षेत्र में उड़ान भरते हैं। ऐसे में यदि ये दिन में उड़ान भर रहे हैं तो धूप जमीन तक नहीं पहुंच पाती औैर धरती पर बड़े क्षेत्र में अंधेरा छा जाता है। आराम के लिए जहां ये रात में उतरती हैं, वहां कयामत आ जाती है। ये खेतों की पूरी फसल रातों रात चौपट कर डालती हैं। खेतों में टिड्डियों का उतरना किसी मायने में प्राकृतिक प्रकोप से कम नहीं है। हमारे देश में पश्चिमी-उत्तरी कोने से इनका आगमन होता है। इनके आगमन का अभिशाप राजस्थान के ग्रामीणों को सबसे ज्यादा झेलना पड़ता है। यह टिड्डी दल वापिस नहीं लौटते और जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है, ये मृत्यु को प्राप्त होते चले जाते हैं। इस तरह से और भी अनेक कीट-पतंगे हैं, जो प्रवास यात्रा पर निकलते हैं।
मनुष्य के इर्द-गिर्द घूमते रहने वाले इन कीड़े-मकोड़ों की पूरी दुनिया में सात लाख प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें जल, थल और वायु में विचरण करने वाले सभी कीड़े-मकोड़े हैं। यह भी औसत निकाल लिया गया है कि दुनिया में जितने जीव-जन्तु हैं, उनमें से तीन चौथाई अथवा 75 प्रतिशत कीड़े-मकोड़े ही हैं। टिड्डी इसी संख्या में शामिल है। व्यर्थ से दिखने वाले इन कीड़ों का भी अपना महत्व है। पर्यावरणीय प्रदूषण को दूर करने में ये कीड़े-मकोड़े अहम भूमिका निभाते हैं। मनुष्य या अन्य बड़े जानवरों द्वारा फैलाई गंदगी को आहार बनाकर सफाचट यही कीड़े-मकोड़े करते हैं। जो जीव-जंतु जल और थल में मर जाते हैं। उनके शरीर को आहार बनाकर भी ये सफाई का काम करते हैं। बड़े कीड़े-मकोड़े छोटे कीड़ों को आहार बनाकर प्रकृति का संतुलन बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ नए शोधों के बाद मनुष्य ने इन कीड़ों को अपने हित साधने के लिए पालना भी शुरू कर दिया है। मकड़ियों पर ऐसे प्रयोग किए गए हैं। इन मकड़ियों को खेतों में पालकर छोड़ा गया। इन्होंने खेतों में ऐसे कीड़ों को आहार बनाया जो फसलों को नष्ट कर देते थे। अब इस दिशा में और प्रयोग चल रहे हैं। प्रवास पर निकले कीड़े-मकोड़ों इनमें से अधिकांश का जीवन कुछेक महीनों का ही होता है, इसलिए इनकी जो पीढ़ी प्रवास पर निकलती है, वह वापिस नहीं लौट नहीं पाती, मगर इनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी के वंशज जरूर लौटकर अपने पुरखों के मूल निवास स्थानों पर पहुंच जाते हैं। यह समझ इनकी प्राकृतिक विलक्षण्ता का अनूठा उदाहरण है।
वास्तव में प्रवास यात्रा पर निकलने वाले कीटों में तितली और शलभ की अनेक प्रजातियां हैं। उत्तर अमेरिका में पाई जाने वाली मोनार्क प्रजाति की तितली की प्रवास यात्रा बेहद लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी है। इसीलिए इनके प्रवास कार्यक्रम को देखने हजारों पर्यटक जाते हैं। यह तितली बेहद सुंदर व आर्कषक होती है। इसके काले शरीर पर सफेद धारियां होती हैं। इसके पंख गहरे नारंगी रंग के होते हैं, जिनके किनारे गहरे काले होते हैं। ग्रीष्म ऋतु में यह तितली संयुक्त राज्य अमेरिका के उत्तरी हिस्से और कनाडा में स्वच्छंद अठखेलियां करती रहती हैं। पर सितंबर का महीना लगते ही ये अपना मन प्रवास यात्रा पर निकलने का बना लेती हैं और हजारों की संख्या में इनके समूह दक्षिण दिशा की ओर उड़ान भरने लगते हैं। इनकी उड़ानों की गति 15-16 किलोमीटर प्रति घंटा होती है और ये धरती से 15-16 फीट की ऊंचाई पर उड़ती हैं। लगातार उड़ान भरती रहने वाली ये तितलियां तब तक उड़ती रहती हैं, जब तक अपनी मंजिल तक नहीं पहुंच जाती। इनकी मंजिल होती है फ्लोरिडा, कैलीफोर्र्निया अथवा सान फ्रांसिस्को। यहां आकर ये लंबी शीत निद्रा में लीन हो जाती हैं और सर्दियों का पूरा मौसम नींद में डूबे हुए ही गुजार देती हैं।
सान फ्रांसिस्को के निकट एक जंगल है।
इस जंगल में पिछले सौ साल से ये तितलियां हर साल निश्चित समय पर आ रही हैं। इस जंगल के पेड़ों के तनों पर ये इस हद तक चिपक जाती हैं कि ऐसा भ्रम होने लगता है मानों तनों पर तितली की डिजाइन की चादर लपेट दी हो। इसी कारण इन पेड़ों को ‘तितली वृक्ष’ कहा जाने लगा है। इस समय इस जंगल का आकर्षण हैरतअंगेज होता है और यहां हजारों पर्यटक इन्हे देखने आते हैं। तितलियों के साथ छेड़खानी करने पर सख्त प्रतिबंध है। छेड़खानी करने पर आर्थिक दंड का प्रावधान है। जाड़ा समाप्त होते-होते यानी मार्च का महीना आते-आते ये तितलियां शीतनिद्रा से जागती हैं और वापिस चल पड़ती हैं। जून माह में तीन हजार किमी की लंबी यात्रा तय कर अपनी मंजिल यानी कनाडा पहुंच जाती हैं। लेकिन वास्तव में वे तितलियां वापिस नहीं होती, जो प्रवास पर निकली थीं, उनकी संतानें वापिस लौटती हैं।
शलभों (मॉथ) की भी कुछ प्रजातियां प्रवास यात्रा पर निकलती हैं।
चूंकि ये रात में विचरण करने वाले जीव हैं, इसलिए इनकी यात्राओं के बारे में सटीक जानकारियां उपलब्ध नहीं हैं। इसीलिए एल्लो प्रजाति का शलभ निरंतर प्रवास यात्रा पर निकलता रहता है। यह दक्षिण अमेरिका से लेकर कनाडा तक की यात्राएं करता है। यह झुण्डों में यात्रा करने का आदी है। भूमध्य सागर के पूर्वी तट पर निवास करने वाला सिल्वर वाई नाम का शलभ गर्मियों में उत्तरी यूरोप की यात्राएं करता देखा गया है। यह फसलों को बहुत हानि पहुंचाता है। अमेरिका में पाया जाने वाला कपास शलभ भी अक्टूबर-नवंबर में प्रवास पर निकलता है। आस्ट्रेलिया में पाए जाने वाले शलभ गर्मी से बचाव के लिए न्यू साउथ वेल्स के शिखरों पर चले जाते हैं। यहां पहुंचकर ये चट्टानों की दरारों और गुहाओं में अपना ठिकाना बनाते हैं। गर्मी खत्म होने के साथ ही इनकी प्रवास यात्रा खत्म हो जाती है और ये वापिस लौटने लगते है। लेकिन ये नहीं, इनकी संतति लौटती हैं। भारत में भी शलभों की अनेक प्रजातियां पाई जाती हैं। यह भी गर्मियों में हिमालय की तराई की और प्रवास पर निकल जाती हैं और गर्मियां खत्म होने के बाद अनकी संतानें वापिस लौटती हैं।
चींटी भी प्रवास यात्रा पर निकलती हैं। लेकिन इनकी यात्राएं लंबी नहीं होती हैं। भोजन का आभाव होने पर ये तीन से पांच सौ फीट तक की दूरी की प्रवास यात्राओं पर निकलती हैं। एक बिल में रहने वाली सभी चींटियां एक साथ प्रवास यात्रा पर नहीं निकलती हैं। उनमें से कुछ ही चिंटियां प्रवास पर जाती हैं। इनमें से कुछ चिंटियां आहार के स्त्रोत तक पहुंचने के लिए सुविधाजनक रास्ते भी बनाती हैं। इन रास्तों में कोई बाधा होती है तो ये उसे मिलकर हटा देती हैं। चींटियां एक कतार में चलती हैं। यदि चींटियों की कतार तोड़ दी जाए तब भी ये गंध के सहारे सही रास्ते पर आकर आगे बढ़ने लगती हैं। इनकी सूंघने की क्षमता बहुत तेज होती है।
रेगिस्तान में पाई जाने वाली चींटियां पक्षियों की तरह सूर्य की रोशनी से अपने गंतव्य की दिशा तय करती हैं। वह सूर्य से एक निश्चित कोण बनाती हुई आगे बढ़ती हैं और लौटते समय वे 180 डिग्री के कोण पर घूम जाती हैं। फिर सूर्य के प्रकाश से कोण बनाकर मार्ग तय करती हैं। चींटियांं सूर्य के प्रकाश के आधार पर चलती हैं। इस बात का पता वैज्ञानिकों ने इनके रास्ते में दर्पण रखकर लगाया। दर्पण इस तरह रखा गया कि सूर्य का प्रतिबिंब उल्टी दिशा में बने। इस प्रतिबिंब के बनते ही चींटियां अपना मार्ग उल्टी दिशा में बदल देती हैं। अन्य अनेक कीड़े भी सूर्य की मदद से अपना मार्ग निर्धारित करते हैं। सूर्य के आधार पर यात्राएं करने वाले जीव रात में यात्राएं नहीं करते हैं। तो है न गजब की बात कि दुनियाभर के टिड्डी और कीट-पतंगे भी हजारों किमी की प्रवास यात्राओं पर निकलते हैं।
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