सुरक्षा परिषद में पांच स्थायी (अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन) और दस अस्थाई (कुल 15) सदस्य होते हैं। अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन महासभा द्वारा दो वर्ष की अवधि के लिये किया जाता है। 1966 से पहले सुरक्षा परिषद के सदस्यों की संख्या 11( 5 स्थायी 6 अस्थायी) थी। 1965 में हुए संशोधन के बाद अस्थायी सदस्यों की संख्या 6 से बढाकर 10 कर दी गई। 10 अस्थायी सदस्यों का निर्धारण क्षेत्रीय आधार पर किया जाता है। इसमें एशियाई और अफ्रीकी देशों के लिए पांच, पूर्वी यूरोपीय देशों के लिए एक, दक्षिण अमेरिकी और कैरेबियाई देशों के लिए दो और पश्चिमी यूरोपीय और अन्य देशों के लिए दो सीटे निर्धारित की गई है।
एन.के. सोमानी
पन्द्रह सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में बतौर अस्थाई सदस्य के रूप में भारत का निर्वाचन होना बदलती वैश्विक व्यवस्था में काफी अहम माना जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्यों देशों में से 184 देशों ने भारत की दावेदारी का समर्थन किया है। साल 1950 के बाद भारत इस बार आठंवी दफा परिषद् का अस्थायी सदस्य बना है। पिछली बार साल 2011-12 में भारत इसका सदस्य था।
एक दशक के बाद भारत की सुरक्षा परिषद् में वापिसी हो रही है। भारत जनवरी 2021 से दिसबंर 2022 तक इस पद पर रहेगा। पिछले कुछ समय से संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न निकायों में सुधार की जो मांग की जा रही थी, भारत के निर्वाचन के बाद उनके पूरा होने की उम्मीद की जाने लगी है। हालांकी अभी जिस गति से अंतरराष्ट्रीय समीकरण बदल रहे हैं, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि परिषद् के भीतर भारत को कई मोर्चों पर जूूझना होगा। एक ओर जहां परिषद् के स्थायी सदस्य अमेरिका और चीन के बीच तनातनी का दौर है, वहीं भारत खुद चीन के साथ सीमा विवाद में उलझा हुआ है। भारत का निर्वाचन इस लिए भी अहम माना जा रहा है, क्योंकि भारत सभी दस अस्थाई सदस्यों में सबसे बड़ा व प्रभावशाली देश होगा। ऐसे में परिषद् के स्थायी सदस्य अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, चीन, और फ्रांस विश्व व्यवस्था को अपने मनमाफिक ढंग से ढालने के लिए भारत को साधने का प्रयास करेंगे। थोडे़ शब्दों में कहा जाए तो परिषद् के भीतर होेने वाले निर्णयों को लेकर भारत की सहमति या असहमति खास मायने रखेगी।
हालांकि अस्थायी सदस्य के तौर पर भारत का निर्वाचन पहले से ही तय माना जा रहा था। यूएन के जिस एशिया प्रशांत समूह से भारत चुन कर आया है, उस समूह के सभी 55 देशों ( चीन और पाकिस्तान) ने पिछले साल जून में ही भारत के नाम पर अपनी मुहर लगा दी थी। पहले इस क्षेत्र से अफगानिस्तान ने भी अपनी दावेदारी की थी, लेकिन भारत के आग्रह पर अफगानिस्तान ने अपने कदम पीछे खींच लिए। अफगानिस्तान के हटने के बाद भारत की एक तरफा जीत तय मानी जा रही थी। 15 सदस्यों वाली सुरक्षा परिषद् में भारत को भले ही अस्थाई सदस्य के तौर पर दाखिला मिला हो, लेकिन दुनिया के सबसे बड़े संगठन के सबसे शक्तिशाली निकाय की मेज पर आने मात्र से ही किसी भी देश का संयुक्त राष्ट्र और उसके अन्य निकायों की कार्यप्रणाली में दखल देने का दायरा बढ़ जाता है। यूएन के भीतर भारत के दबदबे की एक बड़ी वजह यह भी है कि भारत इस समय डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी बोर्ड का भी अध्यक्ष है, परिषद् की सदस्यता और मिल जाने के बाद दुनिया की भू राजनीति को आकार देने में तो भारत अपनी भूमिका अदा करेगा ही, यूएन के दूसरे निकायों के भीतर भी अपने हीतोें की भलीभांति पैरवी कर सकेगा।
सुरक्षा परिषद् में भारत की वापसी का जो सबसे सुखद पहलू है, वह यह है कि अब भारत के पास चीन को नियंत्रित करने का एक ओर हथियार आ गया है। परिषद् के भीतर रहते हुए जहां एक ओर भारत पाक समर्थित वैश्विक आतंकवादी गुटों को ग्लोबल टेरिस्ट घोषित करवा सकेगा वहीं दूसरी ओर वह चीन और पाकिस्तान की ओर से लाए जाने वाले भारत विरोधी प्रस्तावों को रोक सकेगा। पिछले दिनों पाकिस्तान ने एक प्रस्ताव के द्वारा भारतीय इंजीनियर वेणु माधव डोेंगरा पर आतंकवादी गतिविधियों में सम्मिलित होने का आरोप मढ़ कर उन्हें यूएन में वैश्विक आतंकवादी घोषित कराने की साजिश रची थी। डोंगरा अफगानिस्तान में स्थित भारतीय कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करते हैं। पाकिस्तान का आरोप है कि डोंगरा उन चार भारतीयों में शामिल हैं, जिनका संबंध पाकिस्तान की धरती पर हुए आतंकी हमलों से हैं। हालांकी अमेरिका के विरोध के चलते यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका । दरअसल, मई 2019 में भारत के प्रस्ताव पर जब यूएनएससी ने जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित कर दिया था। इसके बाद से पाकिस्तान लगातार भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है। वह चाहता है कि किसी न किसी तरह डोंगरा को वैश्विक आतंकवादी घोषित करवाकर भारत की वैश्विक छवि को खराब कर सके। उसे विश्वास है कि चीन उसकी इस चाल में मदद करेगा। लेकिन अब सुरक्षा परिषद् में भारत की मौजूदगी के चलते पाकिस्तान अपने इस घिनौने मकसद में कामयाब नहीं हो सकेगा। हालांकि इससे पहले पुलवामा आतंकी हमले के जिम्मेदार मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र में ग्लोबल आतंकी घोषित करने के भारतीय प्रयासों को चीन ने तकनीकी रोक लगाकार कई बार असफल कर दिया था । लेकिन अंत में अमेरिका व दूसरे देशों के दबाव के चलते चीन को प्रस्ताव का समर्थन करना पड़ा। भारत लंबे समय से यूएन सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता की मांग कर रहा है। कोरोना संकट और चीन के साथ सीमा पर चल रही तनातनी के बीच रूस ने भारत की मांग का समर्थन कर चीन की चिंता बढा दी है। अगले साल जापान और दक्षिण अफ्रीका का कार्यकाल समाप्त होने के बाद भारत सुरक्षा परिषद् में जी-4 ( भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान) देशों का इकलौता नुमाइंदा होगा। साल 2005 में भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान ने सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता हेतू एक-दूसरे का समर्थन करने के लिए जी-4 नामक समूह बनाकर, संयुक्त राष्ट्र में सुधार की मांग कर रहे हैं। इन देशों का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र में सुधार केवल परिषद् में सुधार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें वैश्विक संस्था के संचालन व ढांचागत संरचना में भी सुधार करना जरूरी है।
भारत लंबे समय से कहता आ रहा है कि 15 देशों की परिषद् में सुधार और विस्तार बहुत महत्वपूर्ण है। 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र का निर्माण किया गया था उस समय इसमें केवल 51 देश शामिल थे। वर्तमान में इसके सदस्यों की संख्या बढकर 193 हो गयी है। परिषद्् का 1963 से 1965 के बीच केवल एक बार विस्तार किया गया है। उस समय अस्थायी सदस्यों की संख्या 11 से बढाकार 15 करने का प्रस्ताव पारित किया गया था। सच तो यह है कि आज सुरक्षा परिषद्् में जिस तरह से स्थायी सदस्य वीटो शक्ति का उपयोग एक दूसरे के विरूद्व करते हैं उससे पूरी परिषद्् ही पंगु बन कर रह गई है। परिषद् में सुधार के बाद ही वह मौजूदा समय की चुनौतियों से सही तरीके से निपटने में सक्षम होगी। सुरक्षा परिषद् में पांच स्थायी (अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन) और दस अस्थाई (कुल 15) सदस्य होते हैं। अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन महासभा द्वारा दो वर्ष की अवधि के लिये किया जाता है। 1966 से पहले सुरक्षा परिषद् के सदस्यों की संख्या 11( 5 स्थायी 6 अस्थायी) थी। 1965 में हुए संशोधन के बाद अस्थायी सदस्यों की संख्या 6 से बढ़ाकर 10 कर दी गई। 10 अस्थायी सदस्यों का निर्धारण क्षेत्रीय आधार पर किया जाता है। इसमें एशियाई और अफ्रीकी देशों के लिए पांच, पूर्वी यूरोपीय देशों के लिए एक, दक्षिण अमेरिकी और कैरेबियाई देशों के लिए दो और पश्चिमी यूरोपीय और अन्य देशों के लिए दो सीटे निर्धारित की गई है।
इस समय दुनिया के देश गंभीर संकट के दौर से गुजर रहें है। कोरोना महामारी ने कई बड़े देशों को घुटनो पर ला दिया है। महाशक्तियों के बीच तनाव की स्थिति बड़े संघर्ष का संकेत कर रही है। ऐसी स्थिति में जब तक सुरक्षा परिषद् लोकतांत्रिक और उचित प्रतिनिधित्व के सिंद्धात को स्वीकार नहीं करेगी इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वो बड़े संकटों से निबट सकेगी। सुरक्षा परिषद् और महासभा के बीच संबंध निर्धारित करने की भी आवश्यकता है। दो वर्ष के कार्यकाल में भारत को दो बार सुरक्षा परिषद् का नेतृत्व करने का भी अवसर मिलेगा। संभवत अगस्त 2021 और नवंबर 2022 में भारत को परिषद् की अध्यक्षता का अवसर मिले। ऐसे में उम्मीद है कि भारत अपने एजेंडे के पांच मूल तत्वों- सम्मान, संवाद, सहयोग, शांति व सभी के लिए संवृद्धि को आधार बनाकर यूएन में अपेक्षित सुधारों के अपने एजेंडे को लागू करने की दिशा में आगे बढ़े।
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