किसी ने क्या कमाल की बात कही है । कि किसी से आगे बढ़ना है तो अपनी लकीर उससे बड़ी बनाओ न कि, उसकी बनी लकीर मिटाने की कोशिश करो। आज हमारे देश में बायकॉट चीन की मुहिम सोशल मीडिया पर काफी जोर पकड़ रही। लेकिन बड़ा सवाल यही क्या हमारे देश द्वारा ‘बायकॉट चीन’ का अभियान चला देने से ही वह शिथिल और कमजोर पड़ जाएगा? क्या हमारे द्वारा चीन के बने दो- चार ऐप्प डिलीट कर देने मात्र से उसको उसके किए की सजा मिल जाएगी? क्या इस मुहिम से हमारे देश का वैश्विक महाशक्ति बनने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा? हम चीनी सामानों का बहिष्कार कर उसका विकल्प इतनी आसानी से खोज लेंगे?
सवाल कई हैं और इनके उत्तर भी सभी के पास हैं। लेकिन वर्तमान में हम भावनाओं और राजनीति के बनाएं ‘राष्ट्रवादी परिवेश’ में जीने को विवश हैं। जिस कारण माकूल जवाब सामने होते हुए भी हम मात्र चीनी टीवी और समानों को तोड़कर सोशल मीडिया पर वीडियो शेयर करने में ही चीन के कमजोर पड़ने का दिवास्वप्न देख रहें हैं। चलिए, यहां हम कुछ तथ्यों के माध्यम से बात समझते हैं। आज जो चीन हमें दिखता है, वह 1950 के आसपास के वक्त में या उससे पहले बिल्कुल ऐसा नहीं था। चीन को उस दौर में कोई बड़ा मुल्क महत्व देने से भी कतराता था, लेकिन चीन ने बीते कुछ वर्षों में अपने आपको इस तरीके से स्थापित किया है, कि कई मामलों में आज अमेरिका भी चीन के सामने पानी भरता नजर आता है। चीन आज वैश्विक परिदृश्य पर अपनी मनमानी कर रहा है तो उसके पीछे कई कारण है। वर्तमान में चीन ने एक रिपोर्ट के मुताबिक लगभग 150 से अधिक देशों को 112.5 लाख करोड़ रुपए कर्ज के रूप में बांट रखा है। चीन अब विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से बड़ा कर्जदाता बन चुका है। फिर वह अपनी मनमानी क्यों न दिखाएं? चीन की नीतियां गलत हो सकती और हैं भी, लेकिन हम सोचें कि उसका सामान बंद कर देने मात्र से वह घुटनों पर आ जाएगा, या फिर हमारा देश भारत चीन से आगे निकल जाएगा। तो यह सिर्फ कोरी कल्पना और दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं।
ईसा के जन्म से 500 वर्ष पूर्व चीन के सुन जू ने “द आर्ट ऑफ़ वॉर” नामक किताब लिखी थी। जिसमें उन्होंने यह बताया था कि कैसे बिना जंग लड़ें हुए भी दुश्मन को परस्त किया जा सकता। चीन की तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर यह कहा जा सकता, कि वह इसी नीति पर विश्वास कर आगे बढ़ रहा है। दूसरी तरफ एक देश हमारा भारत है, जहां की रहनुमाई व्यवस्था गुट-निरपेक्षता के सिद्धांत और पंचशील के सिद्धांत से बाहर नहीं निकल पा रही। वह मौजूदा वक्त में भी पुराने बने-बनाएं ढर्रे पर ही चलने को विवश दिख रही। वहीं हमारे देश की अवाम भी प्रबल राष्ट्रवादी सिर्फ तभी दिखती जब उसे पाकिस्तान का विरोध करना होता है। वैसे बात चीनी सामान के बहिष्कार की चल रही।
ऐसे में यह मांग कोई आज की नई मांग तो है नहीं! समय-समय पर चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की बातें होती आई हैं। हाँ बशर्तें कि इस बार सरकार और देश के बड़े व्यापारिक संगठनों द्वारा उठाए गए कदम से इस मुद्दे को ज्यादा तूल मिल गया है। द कंफेडरेशन ऑफ़ आल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) के अनुसार चाईनीज उत्पादों के विकल्प के रूप में स्थानीय भारतीय उत्पादों का उपयोग असंभव नहीं है, लेकिन कठिन जरूर है। कैट का कहना है कि चीन से आयातित सामानों को अगर 20 से 25 फीसदी तक कम कर दिया जाएं तो वर्ष 2021 तक लगभग 1 लाख करोड़ रुपए का आयात कम किया जा सकता है। ऐसे में हमारा देश भारत जिस हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन के बलबूते कोरोना काल में वैश्विक स्तर पर वाहवाही लूटता रहा। अगर उसके लिए कच्चा माल चीन से ही आयात करता हो। फिर चीन से व्यापार को एकाएक बंद करना उसके लिए एक तरफ कुंआ तो दूसरी तरफ खाई से अधिक कुछ नहीं।
चलिए, मान लिया चीन से व्यापार रोककर, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और रूस जैसे देशों की तरफ हम रुख कर लेते हैं, लेकिन इससे फायदा क्या हुआ भारत को? एक उदाहरण से बात समझते हैं। जिस देश में लगभग 20 करोड़ लोग इक्कीसवीं सदी मे दो जून की रोटी के लिए मोहताज हो। देश की जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग अकुशल श्रमिक की श्रेणी में आता हो, तो क्या उसे अपने शौक और जरूरतें पूरा करने का हक नहीं? एक दिन में मनरेगा के अंतर्गत 202 रुपए कमाने वाला व्यक्ति क्या चीनी कंपनी का मोबाइल- फोन बंद हो जाने पर अमेरिका और अन्य विदेशी कंपनियों का मोबाइल फोन खरीद सकता है? खरीद भी लिया तो क्या कम पैसों में उसे वह सुविधाएं मिल पाएगी? जो चीन की कंपनी उसे सस्ते दामों पर उपलब्ध कराती आ रही। इतना ही नहीं मोबाइल-फोन तो सिर्फ उदाहरण है, हम ऐसे अनेक जरूरी वस्तुओं के लिए चीन पर आश्रित हैं। जिसके लिए दूसरे देशों की तरफ मुँह मोड़ा भी तो वह हमारे लिए नुकसानदेह ही साबित होगी।
आज हम चीन से व्यापारिक रिश्ते तोड़ भी लें। तो बहुत स्वाभाविक है कि चीन की जगह कोरिया, जापान और अमेरिका ले लेगा, क्योंकि भारत उस लिहाज से बीते सात दशकों में सक्षम भी नहीं हुआ, कि सुईं से लेकर रॉफेल तक बना लेगा। भारत की प्राचीन ज्ञान परम्परा भले विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता रखती थी, लेकिन पिछलग्गू बनने की हमारी आदत ने हमारी शक्ति को क्षीण ही किया है। आज गांधी के नाम पर राजनीति तो होती, लेकिन गांधी के चरखे को बमुश्किल कोई याद करता होगा? ऐसे में जब हम चीन से व्यापार बन्द कर अमेरिका और कोरियाई देश का मुंह ताकने को विवश होंगें फिर सुभाष चन्द्र बोस का एडोल्फ हिटलर से की गई बातचीत का एक प्रसंग याद आएगा।जिसमें सुभाषचंद्र जी कहते हैं कि ब्रिटिश की गुलामी हटाकर जर्मन की गुलामी हम नहीं करना चाहते और न ही भारत में ऐसा होने देंगे।
ऐसे में जिस दौर में स्मार्ट फोन के भारतीय बाजार पर चीन की घुसपैठ 72 फीसदी, जिस सोलर एनर्जी के मामले में भारत विश्व का नेतृत्व कर रहा सूर्यपुत्र के नाम से, उस सोलर पावर के क्षेत्र में भी चीनी कम्पनियों की हिस्सेदारी 90 फीसदी है। इतना ही नहीं जिस देश में सुश्रुत, चरक जैसे वैद्यों की फौज थी, पुरातन काल में। वह देश आज के समय में फार्मा एपीआई के मार्केट का 60 फीसदी हिस्सेदारी चीन के मार्फत कर बैठा है। ऐसे में भारत को अगर वैश्विक परिदृश्य पर अपनी अलग पहचान बनानी है, और चीन का विकल्प बनना है। तो उसके समानांतर एक दूसरी रेखा खींचने की दिशा में आगे बढ़ना होगा। करना यह होगा कि भारतीय ज्ञान परम्परा और शोध को महत्व देने की दिशा में बढ़ें। देश की श्रम शक्ति को व्यापक स्तर पर प्रशिक्षित कर उन्हें कुशल बनाना होगा। शोध का दायरा बढ़ाना होगा। स्वदेशी के लिए वातावरण निर्मित करना होगा, क्योंकि जो शिक्षा जीवन चरित्र का निर्माण करती। वह भी कोरोना काल के दौर में अगर चीनी ऐप्प जूम के माध्यम से दी जाती। फिर हम कहाँ खड़ें, यह अपने आप दृष्टि गोचर हो रहा।
आखिर में एक सवाल पर आप सभी को छोड़े जा रहें, कि भारत सरकार ने हालिया दौर में गाड़ियों के टायर आयात पर रोक लगाने की कोशिश की है। अब इसे देश में बनाने पर पर्यावरण को हानि पहुँचेगी। उससे उभरने का क्या खाका होगा? सवाल यह भी है, क्योंकि विश्व के 20 प्रदूषित शहरों में भारत की संख्या सबसे अधिक है। फिर आप ही तय कीजिए कि चीनी सामान का बहिष्कार उचित है या वह आत्मनिर्भरता भारत जिसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करते हैं। इसके लिए इंतजार करना पड़ेगा!
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