मान लीजिए, यदि आप विधायक या सांसद तो बन गए लेकिन सत्ता में आपकी सरकार नहीं बनी तब राज्यसभा चुनावों पर भी अपनी नजर रखें, क्योंकि सत्ता का मोह भी तो चखना है, यह सबसे सुनहरी अवसर है। ऐसा ही ड्रामा गुजरात में देखने को मिल रहा है। दरअसल गुजरात राज्यसभा का चुनावी मैदान राजनीतिक कश्मकश का केंद्र बन गया है। पिछले कई वर्षों से एक-दो सीटों को लेकर भी बड़ी पार्टियां अपनी पूरी ताकत झोंकती रही हैं। कुछ समय सरकार चलने के बाद विधायकों के इस्तीफों का दौर शुरू हो जाता है। ताजा मामले में गुजरात में 19 जून को राज्यसभा की चार सीटों के लिए चुनाव होंगे और 15 दिन पहले ही कांग्रेस के तीन विधायकों ने इस्तीफे दे दिये, जबकि इससे पूर्व मार्च में भी 5 विधायकों ने इस्तीफे दिए थे।
यह घटिया प्रवृत्ति इनती ज्यादा बढ़ गई है कि राजनीतिक पंडित पहले ही कह देते हैं कि राज्यसभा चुनाव से पहले फलां-फलां विधायक इस्तीफा देंगे। राजनीति में बढ़ अवसरवादिता की सोच चिंताजनक है। इस्तीफा देने वाले विधायकों की मंशा किसी से भी छिपी नहीं है। यहां मामला विधायकों के दल बदल का नहीं बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को कुचल देने का है। अवसरवादी राजनेताओं के लिए सत्ता तिकड़मबाजी का खेल बन गई है। इस्तीफे देने का कोई नीतिगत कारण न बताना, उन लाखों वोटरों को निराशा करने वाला है जो लोकतंत्र में करते हैं व अपने नेता को विधान सभा या संसद में भेजते हैं। पद एवं सुविधाएं पाने की होड़ ने राजनीतिक आदर्शों को दरकिनार कर दिया है।
कभी भाजपा सिद्धांतों वाली पार्टी मानी जाती थी और कांग्रेस पर ‘हार्स ट्रेडिंग’ के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन मौजूदा दौर में भाजपा नेता भी विपक्षी पार्टी के मौकापरस्त नेताओं का स्वागत कर रहे हैं, भले ही वे नेता भाजपा की विचारधारा के कट्टर विरोधी रह चुके हों। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का राजनीतिक गिरावट के दौर में चुप्पी साधना और भी चिंताजनक है। जब बात आदर्शों की हो, तब राजनीति का क्षेत्र भी इसमें शामिल है, जो दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले गिरावट में सबसे ऊपर शुमार है। इस गिरावट ने इस बात को वास्तविक्ता में बदल दिया है कि जोड़-तोड़ की राजनीति इतनी बढ़ हो गई है जो सरकारें तोड़ देने व बनाने का खेल बनकर रह गई हैं।
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