नेपाल की कैबिनेट ने 18 मई 2020 को एक नए राजनीतिक मानचित्र को मंजूरी देकर भारत से विवाद गहरा देने का नया रास्ता खोल दिया था। लेकिन जब नेपाल की केपी शर्मा ओली सरकार संसद के सदन में नए मानचित्र के साथ संघीय संसद के नए लोगो का प्रस्ताव लाने की तैयारी में थी। तब प्रधानमंत्री ओली ने इन मुद्दों पर राष्ट्रीय सहमति बनाने के बहाने सर्वदालीय बैठक बुलाने की बात कहकर इस विवाद से एक कदम पीछे हट गए। दरअसल नेपाल के सभी दलों के नेताओं ने भारत के साथ बातचीत कर इस मुद्दे को सुलझाने का सुझाव दिया है। इस पहल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रणनीतिक व कूटनीतिक सफलता और चीन की कूटनीतिक पराजय माना जा रहा है।
ऐसा माना जा रहा है कि नेपाल ने सीमा विवाद चीन के इशारे पर गरमाया था। कुछ समय पहले ही लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा इस विवाद में शामिल थे। इन विवादित स्थलों की सीमा भारत और नेपाल के साथ चीन से भी जुड़ती है। दरअसल मान सरोवर यात्रा को सुगम बनाने के लिए उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले में आठ मई को भारत सरकार ने लिपुलेख मार्ग का उद्घाटन किया था। इसी का जवाब देने के लिए नेपाल ने अपने नए मानचित्र में कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख क्षेत्र को अपने देश के नए मानचित्र में दिखा दिया।
इस सिलसिले में भारतीय विदेश मंत्रालय का कहना था कि बीते साल 2 नवंबर को नेपाल ने नया नक्शा जारी किया थाए उसमें इस तरह का कोई परिवर्तन नहीं था, जबकि 18 मई को विवादित मानचित्र में नेपाल ने दावा किया था कि 1816 में नेपाल और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुई सुगौली संधि के अनुसार काला पानी क्षेत्र उसका है। 1860 में इस क्षेत्र की भूमि का पहली बार सर्वे किया गया था। इसके बाद 1929 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने ही काला पानी को भारत का हिस्सा घोषित किया था, नेपाल ने भी इसकी पुष्टि कर दी थी। भारत की आजादी के बाद भी यही स्थिति बनी रही। किंतु नेपाल में चीन द्वारा किए जा रहे बड़े पूंजी निवेश के चलते वह ऐसा करने को मजबूर हुआ होगा।
हमारे पड़ोसी देशों में नेपाल और भूटान ऐसे देश हैं, जिनके साथ हमारे संबंध विश्वास और स्थिरता के रहे हैं। यही वजह है कि भारत और नेपाल के बीच 1950 में हुई सुलह, शांति और दोस्ती की संधि आज भी कायम है। नेपाल और भूटान से जुड़ी 1850 किमी लंबी सीमा रेखा बिना किसी पुख्ता पहरेदारी के खुली है। बावजूद चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश की तरह कोई विवाद नहीं है। बिना पारपत्र के आवाजाही निरंतर है। करीब 60 लाख नेपाली भारत में काम करके रोजी.रोटी कमा रहे हैं।
3000 नेपाली छात्रों को भारत हर साल छात्रवृत्ति देता है। नेपाल के विदेशी निवेश में भी अब तक का सबसे बड़ा 47 प्रतिशत हिस्सा भारत का है। बावजूद यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नेपाल का झुकाव चीन की ओर बढ़ रहा है। हालांकि नरेंद्र मोदी ने अगस्त.2014 में नेपाल की यात्रा करके बिगड़ते संबंधों को आत्मीय बनाने की सार्थक पहल की थी, किंतु भारतीय मूल के मधेषियों के आंदोलन ने इस पर पानी फेर दिया।
अब नेपाल और चीन के बीच द्विपक्षीय संबंधों को जो नए आयाम मिले हैं, उनके तहत ऐतिहासिक पारगमन व्यापार समझौतें समेत 10 समझौतों की शुरूआत करके नेपाल ने चीन से रिश्ते मजबूत कर लिए हैं। इस समझौते में सबसे खास एवं विचित्र बात यह हुई है कि नेपाल अब भारत के कोलकाता स्थित हल्दिया बंदरगाह के बजाय 3000 किमी दूर स्थित चीनी तियानजिन बंदरगाह से अपने जरूरी सामानों की आपूर्ति कर रहा है। जबकि भारत का बंदरगाह नेपाल की सीमा से करीब 1000 किमी की दूरी पर है।
विडंबना है कि नेपाल चीन के इस बंदरगाह का तुरंत इस्तेमाल नहीं कर सकता है, क्योंकि चीनी बंदरगाह ऊंचाई पर है और नेपाल में आधारभूत ढांचा उन्नत नहीं है। बावजूद यह समझौता शायद इसलिए हुआ है, क्योंकि इसी समझौते के ठीक पहले नेपाल में मधेशी आंदोलन के चलते भारत से आने वाले नेपाल के व्यापारिक मार्गों को करीब छह माह तक बंद कर दिया गया था, जिससे नेपाल का जनजीवन अस्त.व्यस्त हो गया था। इस नाकेबंदी की भविष्य में पुनरावृत्ति न हो इस आशंका से मुक्ति के लिए नेपाल ने इस समझौते को अंजाम दिया है। इस समझौते के बाद नेपाल का व्यवहार उस रस्सी की तरह हो गया है, जिसका बल जलने के बाद भी नष्ट नहीं होता है।
इस अहम समझौते के अलावा चीन और नेपाल के बीच तिब्बत के रास्ते रेलमार्ग बनाने पर भी संधि हुई है। चीन ने काठमांडू से करीब 200 किमी दूर पोखरा में क्षेत्रीय हवाई अड्डा निर्माण के लिए नेपाल को 21.6 करोड़ डॉलर का सस्ती ब्याज दर पर ऋण दिया है। मुक्त व्यापार समझौते पर भी हस्ताक्षर हुए हैं। नेपाल में तेल और गैस की खोज करने पर भी चीन सहमत हुआ है। इसके लिए वह नेपाल को आर्थिक और तकनीकि मदद देने को राजी हो गया है। चीन ने नेपाल में अपने व्यावसायिक बैंक की शाखाएं भी खोल दी हैं।
नेपाली बैंक भी अपनी शाखाएं चीन में खोल रहे हैं। संस्कृति, शिक्षा और पर्यटन जैसे मुद्दों पर भी चीन का दखल नेपाल में बढ़ गया है। ओली ने तिब्बत के रास्ते चीन के रणनीतिक रेल लिंक को नेपाल तक बढ़ाने का भी प्रस्ताव रखा है। चीन के लिए यह प्रस्ताव अपनी रणनीति के अनुकूल है। क्योंकि चीन पहले से ही रेलवे को तिब्बती शहर शिगात्से से नेपाल सीमा पार गायरोंग तक बढ़ाने की योजना बना रहा है।
अर्से से इन्हीं कुटिल कूटनीतिक चालों के चलते कम्युनिष्ट विचारधारा के पोषक चीन ने माओवादी नेपालियों को अपनी गिरफ्त में लिया और नेपाल के हिंदू राष्ट्र होने के संवैधानिक प्रावधान को खत्म करके प्रचंड को प्रधानमंत्री बनवा दिया था। चीन नेपाल की पाठशालाओं में चीनी अध्यापकों से चीनी भाषा मंदारिन भी मुफ्त में सिखाने का काम कर रहा है। माओवादी प्रभाव ने ही भारत और नेपाल के प्राचीन रिश्ते में हिंदुत्व और हिंदी की जो भावनात्मक तासीर थी, उसका गाढ़ापन ढीला किया।
गोया, चीन का हस्तक्षेप और प्रभुत्व नेपाल में लगातार बढ़ता जा रहा है। हैरानी की बात है कि भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के नेता और वामपंथी लेखक इन मुद्दों पर पर्दा डाले रखकर देशहित से दूरी बनाए हुए हैं। चीन की क्रूर मंशा है कि नेपाल में जो 20.22 हजार तिब्बती शारणार्थी के रूप में रह रहे हैं, यदि वे कहीं चीन के विरुद्ध भूमिगत गतिविधियों में शामिल पाए जाते हैं तो उन्हें नेपाली माओवादियों के कंधों पर बंदूक रखकर नेस्तनाबूद कर दिया जाए।
भारत के लिए यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राजनीतिक नेतृत्व ने कभी भी चीन के लोकतांत्रिक मुखौटे में छिपी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा को नहीं समझा घ् नतीजतन चीन की हड़प नीतियों के विरुद्ध न तो कभी दृढ़ता से खड़े हो पाए और न ही कड़ा रुख अपनाकर विश्व मंच पर अपना विरोध दर्ज करा पाए, अलबत्ता हमारे तीन प्रधानमंत्रियों, जवाहर लाल नेहरू, राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी ने तिब्बत को चीन का अविभाजित हिस्सा मानने की उदारता ही जताई। इसी खूली छूट के चलते बड़ी संख्या में तिब्बत में चीनी सैनिकों की घुसपैठ शुरू हुई। इन सैनिकों ने वहां की सांस्कृतिक पहचान, भाषाई तेवर और धार्मिक संस्कारों में पर्याप्त दखलंदाजी कर दुनिया की छत को कब्जा लिया।
अब तो चीन तिब्बती मानव नस्ल को ही बदलने में लगा है। दुनिया के मानवाधिकारी वैश्विक मंचो से कह भी रहे हैं कि तिब्बत विश्व का ऐसा अंतिम उपनिवेश है, जिसे हड़पने के बाद वहां की सांस्कृतिक अस्मिता को एक दिन चीनी अजगर पूरी तरह निगल जाएगा। ताइवान का यही हश्र चीन पहले ही कर चुका है। चीन ने दखल देकर पहले इसकी सांस्कृतिक अस्मिता को नष्ट-भ्रष्ट किया और फिर ताइवान का बाकायदा अधिपति बन बैठा। हांगकांग और नेपाल में भी चीन यही कर रहा है। हांगकांग को भी वह पूरी तरह नियंत्रण में लेने की फिराक में है।
–प्रमोद भार्गव
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