भारत और चीन समेत जब पूरी दुनिया कोरोना संकट से जूझती हुई मुक्ति के उपाय ढूंढ़ रही है, तब चीन भारतीय सीमा पर न केवल खुद अतिक्रमण की कोशिश में लगा है, बल्कि नेपाल को भी ऐसी ही हरकतों के लिए उकसा रहा है। नतीजतन चीन और नेपाल से सीमा विवाद और सैन्य झड़पें शुरू हो गई हैं। लद्दाख से लेकर सिक्किम तक नियंत्रण सीमा रेखा पर दस ऐसे स्थल हैं, जहां चीन बार-बार विवाद को गरमाता रहता है। चीन की अकसर यह आक्राकता भारत पर अनुचित दबाव बनाने के लिए होती है।
दरअसल कोरोना संकट के चलते भारत की सेवाभावी के रूप में वैश्विक छवि बनी है। भारत ने करीब 100 देशों को कोविड-19 पर असरकारी दवा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दवा मुफ्त देकर जहां संकट में उदारता का परिचय दिया है, वहीं चीन ने कोरोना वायरस की वास्तविकता छिपाकर इस महामारी को दुनिया तक पहुंचाकर धतकर्म किया है। भारत चीनी उत्पादों का बड़ा बाजार है, लेकिन इस संकटकाल में भारत ने मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए आत्मनिर्भर भारत बनने का नारा लगाकर चीन के होश उड़ा दिए हैं। यही नहीं इस नारे पर अमल करते हुए अब भारत रोजाना दो लाख पीपीई किट और एन-5 मास्क स्वदेश में ही बना रहा है। जबकि इस संकट के पहले भारत इनके निर्माण में शून्य था। इधर दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने चीन से व्यापार समेटकर भारत में पैर जमाना शुरू कर दिए हैं। चीन की परेशानी अमेरिका ने अनेक व्यापरिक प्रतिबंध लगाकर भी बढ़ाई है। साफ है, चीन सीमा पर उन्मादी विवाद पैदा कर भारत की स्वावलंबी पहल को झटका देना चाहता है।
चीन की सेना ने लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर (एलएसी) पर पैगोंगत्सो झील और गालवन घाटी में सैनिकों की संख्या बढ़ा दी है। खबर यह भी है कि इस भूभाग में 100 नए तंबू तान दिए हैं और बंकरों के निर्माण के लिए मशीनें लगा दी हैं। स्थिति की गंभीरता का पता इससे भी चलता है कि सेना प्रमुख एमएएम नरवणे को 22 मई को पूर्वी लद्दाख का अचानक दौरा करना पड़ा है। भारत और चीन के बीच कमांडर स्तर की पांच बैठकें भी हुईं, लेकिन बेनतीजा रही। फिलहाल विवादित स्थलों के 80 किमी दायरे में 800 से लेकर 1000 चीनी सैनिक एलएसी के ईद-गिर्द मंडरा रहे है। प्रतिक्रिया स्वरूप भारत ने भी चीन के सैनिकों से 300 से 500 मीटर की दूरी पर अपने जवान तैनात कर दिए हैं।
पैगोंगत्सो झील भारत और चीन के बीच 134 किमी की लंबाई में फैली हुई है। गालवन घाटी लद्दाख और अक्साई चीन के बीच स्थित है। अभी यही विवादित स्थल बना हुआ है। गालवन नदी घाटी क्षेत्र 1962 में हुई भारत-चीन की लड़ाई में भी प्रमुख युद्ध स्थल रहा था। हालांकि इस बार चीन दावा कर रहा है कि पूरी गालवन घाटी पर उसी का अधिकार है। जबकि भारत यहां सामरिक ठिकाने बनाकर नियंत्रण रेखा पर एकतरफा बदलाव लाने की कोशिश में लगा है। इसलिए चीन ने कहा है कि इस क्षेत्र को दूसरा डोकलाम नहीं बनने देंगे। लिहाजा सफाई देते हुए ग्लोबल टाइम्स में छपे एक लेख में कहा गया है कि ‘भारत ने इस इलाके में अवैध निर्माण किए हैं, इस वजह से चीन को सैन्य गतिविधियां बढ़ानी पड़ी हैं।’ दरअसल चीन सोच रहा है कि भारत इस समय कोरोना महामारी के चलते, उससे छुटकारे के लिए संघर्षरत है, इसलिए आसानी से भारत को दबाया जा सकता है।
दरअसल चीन अर्से से इस कवायद में लगा है कि चुंबा घाटी जो कि भूटान और सिक्किम के ठीक मघ्य में सिलीगुड़ी की ओर 15 किलोमीटर की चैड़ाई के साथ बढ़ती है, उसका एक बड़ा हिस्सा सड़क निर्माण के बहाने हथिया ले। चीन ने इस मकसद की पूर्ति के लिए भूटान को यह लालच भी दिया था, कि वह डोकलाम पठार का 269 वर्ग किलोमीटर भू-क्षेत्र चीन को दे दे और उसके बदले में भूटान के उत्तर पश्चिम इलाके में लगभग 500 वर्ग किलोमीटर भूमि लें ले। लेकिन 2001 में जब यह प्रस्ताव चीन ने भूटान को दिया था, तभी वहां के शासक जिग्में सिग्ये वांगचूक ने भूटान की राष्ट्रीय विधानसभा में यह स्पष्ट कर दिया था कि भूटान को इस तरह का कोई प्रस्ताव मंजूर नहीं है। छोटे से देश की इस दृढता से चीन आहत है। इसलिए घायल सांप की तरह वह अपनी फुंकार से भारत और भूटान को डस लेने की हरकत करता रहता है।
भारत और भूटान के बीच 1950 में हुई संधि के मुताबिक भारतीय सेना की एक टुकड़ी भूटान की सेना को प्रशिक्षण देने के लिए भूटान में हमेशा तैनात रहती है। मई 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कुशल कूटनीति के चलते सिक्किम भारत का हिस्सा बना था। सिक्किम ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जिसकी चीन के साथ सीमा निर्धारित है। यह सीमा 1898 में चीन से हुई संधि के आधार पर सुनिश्चित की गई थी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने चीन और ब्रिटिश भारत के बीच हुई संधि को 1959 में एक पत्र के जरिए स्वीकार लिया था। इस समय चीन में प्रधानमंत्री झोऊ एनलाई थे। इसके बाद भारत में लंबे समय तक कांग्रेस की सरकारें रहीं, जो नेहरू के पत्र की स्वीकरता को द्विपक्षीय संधि की तरह ढोती रहीं।
जबकि चीन भारत का दोस्त बनने का दिखावा तो करता रहा, लेकिन मित्र जैसी उदारता कभी नहीं दिखाई। उसका व्यवहार हमेशा ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ जैसा रहा है। 1962 का भारत चीन युद्ध इसी का परिणाम है। क्योंकि ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के नारे और पंचशील के गुणगान के साथ चीन ने यह हमला बोला था। जबकि नेहरू के चीन के शक्तिशाली नेता माओत्से तुंग और चाऊ एन लाई से मधुर संबंध थे, किंतु नेहरू दोस्त की पीठ में छुरा भौंकने की चीन की चाल को समझ ही नहीं पाए थे। हालांकि 1998 में चीन और भूटान सीमा-संधि के अनुसार दोनों देश यह शर्त मानने को बाध्य हैं, जिसमें 1959 की स्थिति बहाल रखनी है। बावजूद चीन इस स्थिति को सड़क के बहाने बदलने को आतुर तो है ही, युद्ध के हालात भी उत्पन्न कर देता है। भारत इस विवादित क्षेत्र डोकाला, भूटान डोकलम और चीन डोगलांग कहता है। यह ऐसा क्षेत्र है, जहां आबादी का घनत्व न्यूनतम है।
अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की जून-2016 में एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें भारत को सचेत किया था कि चीन भारत से सटी हुई सीमाओं पर अपनी सैन्य शक्ति और सामरिक आवागमन के संसाधन बढ़ा रहा है। अमेरिका की इस रिपोर्ट के आधार पर भारत ने तत्काल गंभीरता से आपत्ति जताई होती तो शायद मौजूदा हालात निर्मित नहीं होते ? भारत और चीन के बीच अक्साई चिन को लेकर करीब 4000 किमी और सिक्किम को लेकर 220 किमी सीमाई विवाद है। तिब्बत और अरुणाचल में भी सीमाई हस्तक्षेप कर चीन विवाद खड़ा करता रहता है। 2015 में उत्तरी लद्दाख की भारतीय सीमा में घुसकर चीन के सैनिकों ने अपने तंबू गाढ़कर सैन्य अभ्यास शुरू कर दिया था। तब दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के बीच 5 दिन तक चली वार्ता के बाद चीनी सेना वापस लौटी थी। चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाकर पानी का विवाद भी खड़ा करता रहता है। दरअसल चीन विस्तारवादी तथा वर्चस्ववादी राष्ट्र की मानसिकता रखता है। इसी के चलते उसकी दक्षिण चीन सागर पर एकाधिकार को लेकर वियतनाम, फिलीपिंस, ताइवान और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ ठनी हुई है। यह मामला अंतरराष्ट्रीय पंचायत में भी लंबित है। चीन द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के विरुद्ध अर्ध-स्वायत्त क्षेत्र हांगकांग लगातार संघर्षरत है।
दरअसल चीन ने हांगकांग को राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के दायरे में लाने के लिए कानून में संशोधन-विधेयक पेश किया है। यदि यह पारित हो जाता है तो हांगकांग में चीन विरोधी गतिविधियों को रोकने के साथ ही विदेशी हस्तक्षेप पर भी रोक लग जाएगी। चीन की इस कुटिल मंशा के विरोध में अमेरिका, आस्ट्रेलिया और कनाडा भी उतर आए हैं। इसी तरह चीन ताइवान को स्वायत्त्ता आधार पर ‘एक देश दो प्रणाली’ का सिद्धांत लागू कर हड़पना चाहता है। ताईवान की महिला राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन ने आधिपत्य के इस प्रस्ताव को नकारते हुए स्वतंत्रता को हर हाल में बरकरार रखने की घोषणा की है। बावजूद चीन न तो अपने अड़ियल रवैये से बाज आना चाहता है और न ही विस्तारवादी नीति पर विराम लगाना चाहता हैं।
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