कोरोना महामारी के चलते लॉकडाउन जारी है किंतु इस लॉकडाउन के मौसम में भी एक आशा की किरण दिखायी दे रही है और प्रधानमंत्री मोदी ने ‘सरकार का पैसा किसी का पैसा नहीं’ उक्ति को पलट दिया है और इससे सर्वाधिक प्रभावित हमारे सम्मानीय सांसद हुए हैं। पहले ही उनके वेतन में एक साल तक 30 प्रतिशत की कटौती कर दी गयी है और उनकी संसद सदस्य स्थानीय क्षेत्र विकास योजना ‘एमपीलैड’ पर रोक लगा दी है और इसके चलते लगता है कि हमारे जनसेवकों की पहले जैसे स्थिति फिर कभी नहीं होगी।
आशानुरूप विपक्ष ने इसका विरोध किया और पैसे की कमी के कारण कहा कि वे अपने निर्वाचन क्षेत्र की देखभाल कैसे करेंगे। किंतु उनकी नहीं सुनी गयी और सरकार ने कठोर बनकर इस निर्णय को लागू किया। क्या इससे शासन में एक नई बहार आएगी? 1993 में शुरू की गयी केन्द्र में एमपीलैड और राज्यों में एमएलए लैड आम आदमी की मेहनत की कमाई की लूट का खुला लाइसेंस है। यह लूट इतनी व्यापक है कि भारत की दलित मसीहा मायावती ने 2003 में अपने सांसदों से कहा था कि वे एमपीलैड से प्राप्त अपने कमीशन का कुछ हिस्सा पार्टी को दें। उन्होने कहा था अरे भाई सब मिलजुलकर खाओ। इस योजना में सबसे ईमानदार सांसद भी प्रति वर्ष घर बैठे एक करोड़ रूपए बना लेता है।
हाल ही में एक स्टिंग ऑपरेशन आया था जिसमें कुछ सांसदों को एमपीलैड के अंतर्गत ठेका देने में घूस लेते हुए दिखाया गया था। एक सांसद ने स्पष्टत: कहा स्थानीय नेता जिनके पास पंचायत समिति और जिला परिषद का 400 करोड़ रूपए होता है वे मुझे एमपीलैड के पांच करोड़ रूपयों में से 1 करोड़ रूपए भी उन चीजों पर खर्च करने नहीं देते जिन्हें में एक सांसद के रूप में करना चाहता हूं। एमपीलैड निधि के उपयोग के बारे में सांख्यिकी मंत्रालय के आंकड़ों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि 2014 में निर्वाचित सांसदों द्वारा एमपीलैड की उपयोग न की गयी राशि 214.63 प्रतिशत तक पहुंच गयी है तथा 2004 और 2009 में निर्वाचित सांसदों ने भी इस राशि का प्रभावी रूप से उपयोग नहीं किया है। 14वीं लोक सभा की तुलना में यह अनुप्रयुक्त राशि 885.47 प्रतिशत हो गयी है। 16वीं लोक सभा में यह राशि 1734.42 करोड़ रूपए थी। जिसके चलते सरकार ने इस योजना के लिए 14वीं लोक सभा में 14023.35 करोड़ रूपए जारी किए थे तो 16वीं लोक सभा में केवल 11232.50 करोड़ रूपए जारी किए थे।
सांसदों के लिए उपलब्ध राशि में थोड़ी सी गिरावट आयी किंतु इसमें से अनप्रयुक्त राशि में भारी वृिद्ध हुई है। एमपीलैड की निधि के उपयोग की राज्यवार तुलना करने पर पता चलता है कि 37 राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों में से केवल चार ने इस राशि का पूर्ण उपयोग किया गया। असम में इस राशि में से 61.63 प्रतिशत, राजस्थान में 82.12, लक्षदीव में 82.2 और त्रिपुरा में 82.39 प्रतिशत राशि का उपयोग किया गया। जबकि दिल्ली में 115.13 और चंडीगढ, तेलंगाना, पुडुचेरी और सिक्किम में शत प्रतिशत राशि का उपयोग किया गया। इस संबंध में मोदी ने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। उनके निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में एमपीलैड की अनुप्रयुक्त राशि केवल 2.27 प्रतिशत रही है जबकि कांग्रेस के राहुल गांधी की 80.52 और सपा संस्थापक मुलायम सिंह की 88.54 प्रतिशत राशि अनप्रयुक्त रही है।
नियंत्रक महालेखा परीक्षक की विभिन्न रिपोर्टों में कहा गया है कि यह राशि जनकल्याण के लिए है किंतु इसका एक बड़ा हिस्सा लोगों की जेब में चला जाता है। इसकी कार्य विधि सरल है। सांसद और विधायक जिला मजिस्ट्रेट के साथ सांठगांठ कर यह सुनिश्चित करता है कि लागत को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाकर प्रत्येक योजना में ठेकेदारों से उसे कमीशन दिया जाए। इससे बाबू खुश रहता है और सांसद उससे अधिक खुश रहता है। एक स्मार्ट सांसद पांच करोड़ रूपए में से ढाई करोड़ और एक ईमानदार सांसद 1 करोड़ रूपए बना जाता है। एक सांसद के शब्दों में यह राजनीतिक कार्यकतार्ओं के लिए उनके संरक्षण या उनकी अन्य सेवाओं के लिए वित्तीय पुनर्वास पैकेज की तरह है।
कई मामलों में पाया गया कि राशि उन सड़कों के रखरखाव पर खर्च की गयी जो थी ही नहीं। योजना के अंतर्गत कम मजदूरी दी जाती है, फर्जी मस्टर रोल बनाया जाता है। 30 प्रतिशत तक फर्जी खर्च होता है। यह भी पाया गया कि इस योजना के अंतर्गत ऐसी परियोजनाओं पर भी राशि खर्च की गयी जिन पर इस योजना के अधीन खर्च नहीं किया जा सकता था। जैसे स्मारक, कार्यालय या आवास भवन, व्यावसायिक संगठन, निजी या सहकारी संस्था, धार्मिक स्थल आदि और इस बात के प्रमाण भी हैं कि संसद ने स्वंय ऐसे उल्लंघनों को स्वीकार किया है।
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