इटली में कोरोना वायरस से प्रभावित रोगियों का लगातार उपचार कर रहे 51 चिकित्सकों की मौत हो गई है। स्पेन में 12,298 चिकित्सकों एवं स्वास्थ्यकर्मियों की कोविड-19 जांच पॉजीटिव आई है। भारत में भी मुंबई में एक डॉ. उस्मान की मौत हुई है और दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक और झांसी, इंदौर व भोपाल के चिकित्सक को कोरोना पॉजीटिव की चपेट में आने की खबर है। साफ है, यदि मरकज की तरह देशबंदी का उल्लंघन बड़े पैमाने पर होता है तो हमारे चिकित्साकर्मी खुद कोरोना की चपेट में आते जाएंगे।
इंदौर की एक मुस्लिम बस्ती में जांच के लिए गए चिकित्सा दल पर लोगों ने पत्थर बरसाए और थूका भी। वहीं मरकज के जिन लोगों को दिल्ली के एक रेल भवन में उपचार के लिए रखा गया है, वहां इन लोगों ने थूकने के साथ नर्सों के साथ अश्लील हरकतें भी कीं। इस सब के बावजूद स्वास्थ्य कर्मियों के हौसले पस्त नहीं हुए हैं। हालांकि विपरीत परिस्थितियों में इलाज करना मुश्किल होगा, वैसे भी अस्पतालों में विशाणुओं से बचाव के सुरक्षा उपकरण पर्याप्त मात्रा में नहीं होने के बावजूद डॉक्टर जान हथेली पर रखकर इलाज में लगे हैं। यह विशाणु कितना घातक है, यह इस बात से भी पता चलता है कि चीन में फैले कोरोना वायरस की सबसे पहले जानकारी व इसकी भयावहता की चेतावनी देने वाले डॉ ली वेनलियांग की मौत हो गई है। चीन के वुहान केंद्रीय चिकित्सालय के नेत्र विशेषज्ञ वेनलियांग को लगातार काम करते रहने के कारण कोरोना ने चपेट में ले लिया था। वेनलियांग ने मरीजों में सात ऐसे मामले देखे थे, जिनमें सॉर्स जैसे किसी वायरस के संक्रमण के लक्षण देखे थे और इसे मनुश्य के लिए खतरनाक बताने वाला चेतावनी से भरा एक वीडियो भी सार्वजनिक किया था। भारत में वैसे भी आबादी के अनुपात में चिकित्सकों की कमी हैं। बावजूद वे दिन-रात अपने कत्र्तव्य के पालन में जुटे हैं।
फिलहाल इटली, स्पेन, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ईरान और चीन से कहीं ज्यादा अच्छी स्थिति में भारत केवल देशबंदी की वजह से है। वरना उन सब महाशक्तियों ने कोरोना के समक्ष घुटने टेक दिए हैं, जो चिकित्सा के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों पर अभिमान करते थे। इटली, अमेरिका और स्पेन में 1000 तक लोग रोजाना काल के गाल में समा रहे हैं। ब्रिटेन के सरकारी अस्पताल कोरोना पीड़ित मरीजों से भरे पड़े है। अब ब्रिटेन के हालात इतने बद्तर हो गए है कि वहां पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्यूपमेंट (पीपीई) और वेंटीलेटरों की कमी आ बई है। एन-5 मास्क सहित इन उपकरणों की कमी भारत के अस्पतालों में भी है, लेकिन अब इस कमी से निपटने के लिए उन अकुशल आविश्कारकों को महत्व दिया जा रहा है, जिन्होंने अपनी कल्पना-शक्ति के बूते उत्तम गुणवत्ता के मास्क और पीपीई बनाने में सफलता हासिल कर ली है। तात्कालिक जरूरत की पूर्ति के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने भी अस्थाई स्वीकृति दे दी है।
दरअसल कोरोना वायरस संक्रमण से हमारे चिकित्सक और चिकित्साकर्मी सीधे जूझ रहे हैं। चूंकि ये सीधे रोगियों के संपर्क में आते है, इसलिए इनके लिए विशेष प्रकार के सूक्ष्म जीवों से सुरक्षा करने वाले बायो सूट पहनने को दिए जाते हैं। इसे ही पीपीई अर्थात व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण कहा जाता है। हालांकि यह एक प्रकार का बरसात में उपयोग में लाए जाने वाले बरसाती जैसा होता है। यह विशेष प्रकार के फैब्रिक कपड़े से बनता है। इसका वाटरप्रूफ होना भी जरूरी होता है। पाली राजस्थान में व्यापारी कमलेश गुगलिया को जब जोधपुर के एम्स में बायोसूट कम होनी की जानकारी मिली तो उन्होंने छाते में उपयोग होने वाले वस्त्र से बायोसूट बना डाला। परीक्षण के बाद कुछ सुधारों की हिदायत देते हुए एम्स के अधीक्षक डॉ विनीत सुरेखा ने इन सूटों को खरीदने की मंजूरी दे दी। इसकी लागत महज 850 रुपए है। जबकि पीपीई बनाने वाली कंपनियां इस सूट को तीन से पांच हजार रुपए में बेचती हैं। इन्हीं कमलेश ने इस अस्पताल में बड़ी मात्रा में मास्क उपलब्ध कराए हैं। साफ है, यदि कमलेश जैसे अकुशल कल्पनाशीलों को चिकित्सा उपकरण बनाने की सुविधा मिल जाए तो हम स्थानीय स्तर पर ही कई उपकरणों का निर्माण कर सकते हैं।
इसी तरह अब वेंटीलेटरों की कमी की आपूर्ति ऑटो मोबाइल कंपनियों में इन्हें निर्मित कराकर पूरी की जा रही है। इसी तरह विशाणु विज्ञानी मीनल भोंसले ने कोरोना वायरस की परीक्षण किट बनाने में सफलता हासिल की है। यह किट आठ घंटे की बजाय केवल ढाई घंटे में ही जांच रिपोर्ट दे देगी। इसकी कीमत भी केवल 1200 रुपए होगी, जबकि इस किट को 4500 रुपए में भारत सरकार खरीद रही है। डीआरडीओ ने भी यह किट और वेंटीलेटर बनाने में सफलता हासिल कर लिया। इन उपायों के चलते डॉक्टरों को सुरक्षा और मरीज को जीवनदान तो मिलेगा लेकिन लगातार काम कर रहे चिकित्सा दल यदि जरा भी सावधानी बरतने में चूक जाते हैं तो वायरस उन्हें अपनी गिरफ्त में ले सकता है। हालांकि अब डीआरडीओ ने सभी तरह के सुरक्षा उपकरणों के निर्माण व उनकी आपूर्ति शुरू कर दी है।
कोरोना के इस भीषण संकट में सरकारी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज तो दिन-रात रोगियों के उपचार में लगे हैं, लेकिन जिन निजी अस्पतालों और कॉलेजों को हम उपचार के लिए उच्च गुणवत्ता का मानते थे, उनमें से ज्यादातर ने तालाबंदी कर दी है। जिला और संभाग स्तर के अधिकांश निजी अस्पताल बंद हैं। हालांकि एमसीआई द्वारा जारी 2017 की रिपोर्ट के अनुसार देश में 10.41 लाख ऐलोपैथी डॉक्टर पंजीकृत हैं। शेष या तो निजी अस्पतालों में काम करते हैं या फिर निजी प्रेक्टिस करते हैं। इसके उलट केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार पंजीकृत ऐलोपैथी डॉक्टरों की संख्या 11.59 लाख है, किंतु इनमें से केवल 9.27 लाख डॉक्टर ही नियमित सेवा देते हैं। देश में फिलहाल 11082 की आबादी पर एक डॉक्टर का होना जरूरी है। लेकिन घनी आबादी वाले बिहार में 28,391 की जनसंख्या पर एक डॉक्टर है। उत्तर-प्रदेश, झारखंड, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी हालात बहुत अच्छे नहीं है।
यदि देश की कुल 1.35 करोड़ आबादी का औसत अनुपात निकालें तब भी 1445 लोगों पर एक ऐलोपैथी डॉक्टर होना आवश्यक है। कोरोना महामारी के चलते स्पष्ट रूप से देखने में आ रहा है कि देश के ज्यादातर निजी चिकित्सालय बंद हैं, साथ ही जो ऐलोपैथी डॉक्टर निजी प्रेक्टिस करते हैं, उन्होंने भी फिलहाल रोगी के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए हैं। ऐसे में केंद्र व राज्य सरकारों को इस कोरोना संकट से सबक लेते हुए ऐसे कानूनी उपाय करने होंगे कि बढ़ते निजी चिकित्सालयों और निजी प्रैक्टिस पर लागम लगे तथा सरकारी अस्पताल व स्वास्थ्य केंद्रों की जो श्रृंखला गांव तक है, उसमें चिकित्सकों व स्वास्थ्यकर्मियों की उपस्थित की अनिवार्यता के साथ उपकरण व दवाओं की मात्रा भी सुनिश्चित हो।
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