सरसा। पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां फरमाते हैं कि जो लोग आपस में बेगर्ज, नि:स्वार्थ भावना से प्यार-मोहब्बत करते हैं वो एक तरह से अल्लाह, वाहेगुरु, गॉड, खुदा, रब्ब से प्यार करते हैं। जिनके अंदर प्यार नहीं होता, वो जीते हुए भी मुर्दे के समान हैं और जिनके अंदर प्यार होता है वो मुर्दे भी जिंदा हो जाते हैं। कबीर जी ने लिखा है कि जिस शरीर के अंदर मालिक का प्यार, आपस में प्यार नहीं होता वह शमशान भूमि की तरह है। मालिक ने तो इन्सानों के अंदर प्यार-मोहब्बत की गंगा बहा रखी है, लेकिन जो गंगा की तरफ पीठ करके खड़ा हो जाए तो उसमें गंगा की क्या कमी है यानि इन्सान के अंदर सब कुछ होते हुए भी वह ईर्ष्या, नफरत, विद्वेष, काम-वासना, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, मन-माया के ऐसे बंधनों में जकड़ा हुआ है कि इसे अपने अंदर बहती हुई प्यार-मोहब्बत की गंगा नजर नहीं आती।
आपजी फरमाते हैं कि इन्सान दूसरों को प्यार-मोहब्बत करता देखकर खुद भी प्यार-मोहब्बत करने लग जाए तो भी ठीक है। परन्तु आज इन्सान दूसरों को प्यार-मोहब्बत करता देखकर उससे ईर्ष्या, नफरत करने लग जाता है। इन्सान का पड़ोसी तरक्की कर जाए तो उसके पेट में दर्द होने लगता है और दुआ करता है कि मैं तो भूखा सो लूंगा, लेकिन भगवान पड़ोसी के आग लगा दे। यह दुआ कोई नहीं करता कि मालिक, जिसको जैसा देना है दे, वो तेरी मर्जी है और मुझ पर भी रहमत कर। इसलिए इन्सान को हमेशा अपने लिए भी और दूसरों के लिए अच्छा ही सोचना चाहिए। कभी किसी को बुरा नहीं सोचना चाहिए, करना तो दूर की बात है। जो इन्सान मालिक को याद करता हुआ, दूसरों के भले के लिए काम करता है, मालिक उसे खुशियों से जरूर नवाजते हैं।
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