देश के एक महत्वपूर्ण राज्य मध्य प्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार का गिरना, राजनीतिक चिंतन का विषय है। 23 विधायकों की बगावत के बाद मुख्यमंत्री कमलनाथ का इस्तीफा देना मजबूरी बन गई थी। बहुमत साबित करने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया क्योंकि उन्हें पता चल चुका था कि वे संख्या बल हासिल नहीं कर सकेंगे। अब तय है कि भाजपा के पास बहुमत है और दल-बदल विरोधी कानून होने के बावजूद राजनीतिक अस्थिरता की समस्या हल नहीं हो सकी।
घटना का सबसे निराशाजनक पहलू यह है कि सरकार किसी मुद्दे पर नहीं गिरी बल्कि पार्टी विधायकों की नीयत गिर गई जो राजनेताओं की स्वार्थी सोच के चलते पर सवाल खड़े कर रही है। बागी विधायक यदि किसी मुद्दे पर पार्टी से अलग होते तब वे कर्नाटक जाने की बजाए उन लाखों वोटरों के सामने अपना विचार रखते जिन्होंने उन्हें विधानसभा भेजा था और पार्टी छोड़ने का निर्णय वोटरों पर छोड़ देते। इस घटना में वोटर के विश्वास का कोई महत्व नजर नहीं आया। सरकार गिराने की कोशिशों में लोकतंत्र एक तमाशा बनकर रह गया है। सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या बागी विधायकों की योग्यता रद्द होने के बाद वे सब उपचुनाव लड़कर यदि वे दोबारा जीत जाते हैं तब क्या वे भाजपा के साथ अपनी वफादारी निभा सकेंगे? विगत साल कर्नाटक में सरकार पलट गई।
मध्य प्रदेश की राजनीतिक घटनाओं में यह बात चिंताजनक है कि शिवराज सिंह चौहान जैसे काबिल व सिद्धांतवादी नेता भी स्वार्थ की राजनीति के चलन से नहीं बच सके। कांग्रेस भी सिद्धांतों को भूल गई। स्पीकर के पद की निष्पक्षता पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाए हैं। मध्यप्रदेश विधानसभा स्पीकर का 22 विधायकों के इस्तीफे स्वीकार न करना, न रद्द करना और बजट सत्र में सदन की कार्रवाई 10 दिनों के लिए स्थगित करना पार्टीबाजी का परिणाम है। बजट सत्र में काम ठप्प होने से राज्य का विकास कैसे होगा। करोड़ों लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति की बजाए महज सरकार बनाने के लिए सदन खंडित करना उचित नहीं। कोई भी पार्टी सिद्धांतों की पालन नहीं कर रही। सत्ता की भूख लोकतंत्र की बजाय अवसरवादिता व सिद्धांतहीन राजनीति की एक बुरी मिसाल बन गई है जो शर्मिंदगी का विषय है। नि:संदेह लोकतंत्र कमजोर हुआ है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
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