महात्मा गाँधी एक दिन कुछ लेखन कार्य कर रहे थे। तभी एक सहायक आकर बोला- ‘‘बापू, भोजन का समय हो गया है। आपक ी थाली लग गई है। चलकर भोजन ग्रहण कीजिए।’’ गांधी जी लेखन बंद कर भोजनकक्ष में आ गए। वे भोजन आरंभ करने ही वाले थे कि द्वार पर खड़े एक भिक्षुक पर उनकी नजर गई। वह भोजन कि ही याचना कर रहा था। गांधी जी ने उसे तत्क्षण भीतर बुलाया और अपनी थाली उसके आगे खिसका दी। वह तो था ही बेचारा भूखा। उसने भोजना शुरू किया और बापू उसे आनंद भाव से देखते रहे। भिक्षुक ने भरपेट खाया, फि र शेष बचे भोजन को अपनी झोली में भरकर चला गया। झोली में भरते वक्त रोेटी क ा एक टुकड़ा जमीन पर गिर गया। भिक्षुक के जाने के बाद गांधी जी की दृष्टि उस पर पड़ गई। उन्होंने उसे उठाया और और उस पर लगी धूल झाड़कर उसे खाकर पानी पिया तथा पेट भरने की अनुभूति महसूस करने लगे। वहाँ उपस्थित किसी व्यक्ति ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा,‘बापू या तो भूखे रह लेते या हमसे कह दिया होता, हम भोजन करा देते। भला धरती पर गिरा खाना भी खाया जाता है?’ गांधी जी ने मुस्क राकर उत्तर दिया,‘बंधुओं, यह जमीन हमारी माँ है और माँ का दामन कभी गंदा नहीं हो सकता।’ वस्तुुत: बात यहाँ रोटी और रोटी और भूख की नहीं है, बल्कि मृतभूमि के सम्मान की है। गांधी जी जैसे संयमी व्यक्ति के लिए एक समय भूख रह जाना अत्यंत साधारण- सी बात थी, किन्तु धरती पर गिरे रोटी के टुकड़े को ग्रहण कर वास्तव में वे मातृभूमि के प्रति अपनी श्रद्धा को प्रकट कर रहे थे। और यही संदेश उपस्थित लोगों को देना उनका उद्देश्य था।
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