महाभारत में घमासान युद्ध हो रहा था। द्रोणाचार्य और अर्जुन आमने-सामने थे। द्रोणाचार्य लड़खड़ा रहे थे। अर्जुन आगे बढ़ता जा रहा था। कौरवों मे से एक ने प्रश्न किया, ‘इस आश्चर्य का क्या रहस्य है कि गुरू हारता और शिष्य जीतता जा रहा है।’ द्रोणाचार्य ने स्पष्ट करते हुए कहा-‘मुझे लंबा समय राजश्रय की सुख-सुविधाएँ भोगते हुए हो गया, जबकि अर्जुन निरंतर कठिनाइयों से जूझता रहा है। सुविधा संपन्न अपना सामर्थ्य गंवा बैठता है और संर्घषशीलों की क्षमता निरंतर बढ़ती जाती है।’ अनेक सिद्ध महापुरूषों का जीवन इस बात का साक्षी है कि सफलता का कमल कठिनाइयोें के कीचड़ के बीच खिलता है। तभी जीवन धारदार रहता है, जब तक वह प्रतिरोधों, चुनौतियों की सान पर चढ़ा रहता है, प्रतिकूलताएँ समाप्त होने पर व्यक्ति प्रमादग्रस्त हो जाता है। छोटे से भी विरोध-व्यवधान का सामना करने में वह स्वयं को नितांत असमर्थ पाता है। वह जीवन में काम्य विजयश्री कभी वरण नहीं कर सकता।
विद्वान रामतीर्र्थ
महान विचारक रामतीर्थ परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, तब उनके पास परीक्षा शुल्क के लिए पुरे रूपए नहीं थे। बहुत कोशिश करने पर भी पाँच रूपए की कमी रह गई। रामतीर्थ जब उदास मुँह चंदू हलवाई की दुकान के सामने से निकले, तब चंदू हलवाई ने उन्हें बुलाया और उदासी का कारण पूछा। रामतीर्र्थ ने बताया कि उनके पास परीक्षा फीस के लिए पाँच रूपए कम हैं। हलवाई ने उसी समय पाँच रूपए उन्हेें दे दिए अपनी अद्वितीय प्रतिमा और गणित विषय में शत-प्रतिशत अंक पाकर रामतीर्र्थ गणित के प्रोफेसर बन गए और वे प्रतिमाह पाँच रूपए चंदू हलवाई को भेजने लगे। एक दिन प्रो.रामतीर्थ चंदू हलवाई की दुकान के सामने से निकले। हलवाई ने बड़ी विनम्रता से अपने पास बुलाया और कहा, अब आप दूध पीने हमारी दुकान पर नहीं आते। आपके द्वारा मनी आर्डर से भेजे 35 रूपए मेरे पास जमा हो गए हैं। प्रतिमाह आपके पाँच रूपए का मनी आर्डर प्राप्त हो रहा है। रामतीर्थ ने उत्तर दिया, ‘यह सब तो आपके उन पाँच रूपयों के बदले में हैं। वे मुझे मौके पर नहीं मिलते तो मैं इस स्थिति में कभी नहीं पहुँचता।’ इसी को वैदिक संस्कृति की सच्ची उदारता कहा जा सकता है।
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