हालांकि दिल्ली में चुनाव की घोषणा से पहले से ही ‘आप’ (AAP) का पलड़ा काफी भारी दिखाई दे रहा था और यही कारण था कि भाजपा को दिल्ली में अपना 21 साल का वनवास खत्म करने के लिए चुनाव के दौरान आक्रामक शैली अपनानी पड़ी। लेकिन इस आक्रामक शैली का वो प्रभाव नहीं देखने को मिला, जितनी भाजपा को उम्मीद थी। केजरीवाल के खिलाफ किसी मजबूत चेहरे को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश करके चुनाव न लड़ना भाजपा के बैकफुट पर रहने का एक अहम कारण रहा।
योगेश कुमार गोयल
लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन होती है और लोकतंत्र के महापर्व में इसी जनता जनार्दन की भूमिका सर्वोपरि होती है, जिसका फैसला सर्वमान्य होता है। दिल्ली की जनता ने विधानसभा चुनाव (Delhi Assembly Election 2020)में जो फैसला सुनाया है, उसका खुलेदिल से स्वागत किया जाना चाहिए। दिल्ली (Delhi) में लोकतंत्र के इस महापर्व में कुल 1.47 करोड़ मतदाताओं में से 62.59 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग करते हुए दिल्ली की किस्मत का फैसला कर दिया है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार ऐसा देखा गया, जब किसी राज्य में सत्तारूढ़ दल ने यह कहकर वोट मांगने का प्रयास किया कि अगर उसने पिछले पांच वर्षों के दौरान काम किए हैं, तभी उसे वोट दें अन्यथा न दें। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हर जनसभा में इसी बात पर जोर देते नजर आए कि जनता उनके पांच वर्ष के कामकाज का मूल्यांकन करने के पश्चात ही फैसला करे और अगर वह उनके कामकाज से संतुष्ट है, तभी उसके पक्ष में मतदान करे।
‘आप’ जहां अपने कामकाज के अलावा मुफ्त योजनाओं के साथ चुनावी मैदान में जमी रही, वहीं भाजपा स्थानीय मुद्दों के बजाय राष्ट्रवाद के मुद्दों को जंग का हथियार बनाते हुए मैदान में नजर आई। कांग्रेस भले ही चुनावी मैदान में तमाम सीटों पर सांकेतिक रूप से मौजूद थी, लेकिन वह चुनावी परिदृश्य से पहले ही बाहर दिख रही थी। निश्चित रूप से दिल्ली के ये चुनावी नतीजे देश की राजनीति की नई दिशा तय करेंगे। क्योंकि कामकाज की तलाश में दिल्ली में देशभर के विभिन्न हिस्सों से आए लोग रहते हैं और यहां की राजनीतिक हलचल पूरे देश पर अपना व्यापक असर डालती है।
पूरी चुनावी प्रक्रिया के दौरान ‘आप’ का मुख्य फोकस अपने विकास कार्यों पर रहा, जबकि मुख्य प्रतिद्वंद्वी भाजपा द्वारा आम जन-सरोकारों से जुड़े मुद्दों को दरकिनार कर पूरे चुनाव को शाहीन बाग, एनआरसी, धारा 370, तीन तलाक, राममंदिर, पाकिस्तान जैसे मुद्दों से जोड़ने का प्रयास किया गया और चुनावी नतीजों से पूरी तरह साफ है कि दिल्ली के मतदाताओं को विकास के मुद्दों से हटकर भाजपा द्वारा उठाए गए ये तमाम मुद्दे रास नहीं आए। अगर महज 70 विधानसभा सीटों वाले दिल्ली जैसे छोटे से राज्य में चुनावी प्रचार के लिए भाजपा अपने 240 सांसदों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, दिग्गज नेताओं और कार्यकतार्ओं की भारी-भरकम फौज मैदान में उतारने और पूर्व भाजपाध्यक्ष व मौजूदा गृहमंत्री अमित शाह द्वारा पूरी ताकत झोंक देने के बाद भी आशानुकूल परिणाम हासिल नहीं कर सकी तो उसे इसके लिए गंभीर मंथन करना होगा क्योंकि दिल्ली के इन चुनावी नतीजों का असर कुछ राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में देखने को मिलेगा।
हालांकि दिल्ली में चुनाव की घोषणा से पहले से ही ‘आप’ का पलड़ा काफी भारी दिखाई दे रहा था और यही कारण था कि भाजपा को दिल्ली में अपना 21 साल का वनवास खत्म करने के लिए चुनाव के दौरान आक्रामक शैली अपनानी पड़ी। लेकिन इस आक्रामक शैली का वो प्रभाव नहीं देखने को मिला, जितनी भाजपा को उम्मीद थी। केजरीवाल के खिलाफ किसी मजबूत चेहरे को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश करके चुनाव न लड़ना भाजपा के बैकफुट पर रहने का एक अहम कारण रहा। प्रदेश संगठन में अलग-अलग खेमों की गुटबाजी, भाजपा शासित नगर निगमों की कार्यप्रणाली को लेकर उठते गंभीर सवाल, सीलिंग की कार्यवाही, व्यापारियों की नाराजगी इत्यादि कुछ ऐसे अहम कारण भी रहे, जिनका खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ा। भाजपा के लिए दिल्ली के चुनाव परिणाम बहुत बड़ी खतरे की घंटी हैं क्योंकि कुछ समय पहले दिल्ली नगर निगम में भाजपा को प्रचण्ड जीत मिली थी और करीब नौ माह पहले हुए लोकसभा चुनाव में वह दिल्ली की सभी सातों लोकसभा सीटों पर रिकॉर्ड मतों के साथ जीत दर्ज करते हुए 58 फीसदी मत प्राप्त कर 70 में से 65 विधानसभा सीटों पर आगे रही थी। लेकिन अब अगर विधानसभा चुनाव में चंद माह के भीतर उन्हीं में से अनेक विधानसभा क्षेत्रों में वह इस कदर पिछड़ गई है तो भाजपा के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। निश्चित रूप से भाजपा नेतृत्व को अब अपनी सियासी रणनीतियों और नीतियों को लेकर गहन मंथन करना ही होगा।
बहरहाल, दिल्ली के चुनावी नतीजों ने पूरी तरह साफ कर दिया है कि जनता को अब भावुक और भड़काऊ मुद्दों के बजाय विकास की राजनीति पसंद है। मई 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में तीसरे स्थान पर रही ‘आप’ अगर प्रचण्ड बहुमत के साथ दिल्ली में फिर से सरकार बनाने में सफल हुई है तो उसके कारणों को समझना जरूरी है। चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा जहां शाहीन बाग जैसे मुद्दों को अहम चुनावी मुद्दा बनाते हुए निर्वाचित मुख्यमंत्री को आतंकी व नक्सली करार देती नजर आई, वहीं केजरीवाल ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान जिस शिष्टता और शालीनता के साथ संयमित भाषा का प्रयोग करते हुए अपनी सरकार के कार्यों को जनता के बीच रखा, उसका सीधा-सीधा फायदा उन्हें मिला। भाजपा सहित तमाम विपक्षी दल सरकार द्वारा विकास कार्यों के नाम पर झूठ बोलने और जनता को गुमराह करने के आरोप मढ़ते रहे, लेकिन आप सरकारी स्कूलों के कायाकल्प, मौहल्ला क्लीनिक, मुफ्त बिजली व बिजली दरों में कटौती, पानी की सप्लाई, बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा जैसे अपने कार्यों को गिनाते हुए मजबूती के साथ मैदान में डटी रही, उसका उसे भरपूर फायदा मिला।
बहरहाल, चुनावी नतीजों का स्पष्ट संदेश यही है कि भाजपा नेतृत्व ने महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखण्ड के चुनावी नतीजों से सबक न लेते हुए जिस प्रकार दिल्ली के चुनाव में भी भावनात्मक मुद्दे आक्रामक शैली में उठाए, उनका उसे कोई अपेक्षित लाभ नहीं मिला। पिछले तीनों विधानसभा चुनाव के परिणामों में देखा गया था कि जनता जनार्दन ने राष्ट्रवाद के मुद्दों के बजाय स्थानीय मुद्दों को तरजीह दी थी। कुल मिलाकर दिल्ली के ये चुनावी नतीजे भाजपा के लिए गंभीर मंथन और आत्मचिंतन करते हुए चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार करने का स्पष्ट संदेश दे रहे हैं क्योंकि आने वाले समय में बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु विधानसभा चुनाव होने हैं और अगर भाजपा वहां जीत (Win) का परचम लहराने का ख्वाब देख रही है तो उसे अपनी चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार करना ही होगा क्योंकि हर विधानसभा चुनाव में साफतौर पर देखा जा रहा है कि वहां की जनता का सरोकार राष्ट्रवाद के मुद्दों से ज्यादा स्थानीय मुद्दों से रहता है। जिस प्रकार दिल्ली विधानसभा चुनाव के जरिये विकास के नाम पर मतदाताओं से वोट मांगने की नई चुनावी परिपाटी विकसित हुई है, ऐसे में विकास बनाम राष्ट्रवाद के मुद्दे पर लड़े गए दिल्ली चुनाव के नतीजे देश के तमाम राजनीतिक दलों के लिए एक बड़ा सबक हैं और इन नतीजों को देखते हुए उन्हें अब चुनाव प्रचार पर नए तरीके से सोचने पर विवश होना ही पड़ेगा।
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