महाराजा अग्रसेन एक सफल राजा थे। वे न्याय करने में कुशल और प्रजा का पालन ईमानदारी से करते थे। एक बार उन्होेंने अनेक राजाओं को युद्ध में पराजित किया। उन्होंने राज्य की सम्पन्नता के लिए यज्ञ का आयोजन किया। उन दिनों यज्ञ में पशु बलि का रिवाज था। अचानक महाराज की नजर यज्ञ की वेदी के निकट बंधे हुए पशु पर पड़ी, जो बलि से बचने के लिए छूटने की कोशिश कर रहा था। उसे छटपटाता देख महाराज के ह्रदय पर वज्रपात हुआ। उन्होंने आदेश दिया कि रस्सी खोल दें। आदेश सुनते ही चारों तरफ खलबली मच गई। पंडितों ने अनिष्ट की आशंका व्यक्त करते हुए कहा कि यदि पशु बलि नहीं दी गई तो यज्ञ अधूरा रह जाएगा। महाराज ने उत्तर दिया कि जिस ईश्वर की आराधना के लिए हम यह कार्य कर रहे है, यह मूक पशु भी उसी ईश्वर का पैदा किया हुआ है। भला पिता अपने पुत्र की बलि कैसे मांग सकता है। महाराज ने घोषणा की कि आज के बाद किसी भी यज्ञ में कोई पशु नहीं मारा जाएगा। उन्होंने कहा आज से अहिंसा ही हमारे राज्य का मूल मंत्र होगा। मंत्रियों ने तर्क दिया कि इस बात के प्रचार से पड़ोसी राज्य हमें कायर समझने लगेंगे। महाराजा अग्रसेन ने कहा-‘‘यदि मूक और निरीह पशु की हत्या वीरता है तो हमें ऐसी वीरता नहीं चाहिए।’’
आत्मा का प्रकाश
आत्मा के प्रकाश को भारतीय दर्शन में बहुत महत्त्व दिया गया है। इसे मनुष्य की मुक्ति का उपाय भी माना गया है। एक दिन गुरु से शिक्षा प्राप्त करते-करते एक शिष्य को काफी समय हो गया। देखा तो अँधेरा घिर आया था। शिष्य ने गुरु से कहा कि अँधेरे के कारण रास्ता नहीं सूझ रहा है, मंदिर की सीढ़ियाँ कैसे उतरूँगा। गुरु ने उसके हाथ पर एक दीया रख दिया। लेकिन जैसे ही शिष्य ने पहली सीढ़ी पर पांव रखा, गुरु ने दीया बुझा दिया। शिष्य हतप्रभ रह गया और बोला, ‘यह क्या किया गुरुदेव, गहरा अँधेरा है, सीढ़ियाँ कैसे उतरूँगा?’ इस पर गुरु ने समझाया कि जब एक सीढ़ी पर पैर रख ही दिया तो आगे भी सीढ़ियाँ मिलती चली जाएँगी। दूसरे के दीपक के सहारे जो प्रकाश मिलता है, उससे अपना अँधेरा अधिक बेहतर है। अँधेरे में ही रास्ता खोजा। ऐसा करते-करते तुम्हारे भीतर एक नया दीपक जल उठेगा। अँधेरे में टकराने से, गिरने से , इस असुविधा के बीच से ही तुम्हारी आत्मा निर्मित होगी और प्रकाशित होगी। इस दीपक के सहारे तुम गिरोगे तो नहीं, तुम्हारी आत्मा खो जाएगी। इसीलिए मैंने तुम्हारे हाथ में रखा दीपक बुझा दिया है।
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