यह कैसा लोकतांत्रिक ढ़ांचा बन रहा है, जिसमें पार्टियां अपनी सीमा से कहीं आगे बढ़कर लोक-लुभावन वादे एवं बयानबाजी करने में लगी हैं, वे जोड़ने की बजाय तोड़ने वाली राजनीति कर रहे हैं। उसे किसी भी तरह से जनहित में नहीं कहा जा सकता। समाज एवं राष्ट्र-तोड़कर बयान पार्टियों को तात्कालिक लाभ तो जरूर पहुंचा सकते हैं, पर इससे देश के दीर्घकालिक सामाजिक और राष्ट्रीय सौहार्द एवं सद्भावना पर प्रतिकूल असर पड़ने की भी आशंका है।
ललित गर्ग
दिल्ली में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे निकट आता जा रहा है, अपने राजनीतिक भाग्य की संभावनाओं की तलाश में आरोप-प्रत्यारोप, हिंसक बयानों-वचनों और छींटाकशी का वातावरण उग्र होता जा रहा है। आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी एवं कांग्रेस तीनों ही दलों के नेता अपने चुनाव प्रचार में जिस तरह की उग्र भाषा का इस्तेमाल कर रहे है, वह दुर्भाग्यपूर्ण एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है। सभी अपने कड़वे बोल एवं वाणी से लोकतांत्रिक परंपराओं को लांछित करने में लगे हुए हैं। जिस तरह राजनीतिक दल अपने लोकलुभावन बयानों से आम लोगों को गुमराह कर रहे हंै, उसे आखिर जनविरोधी राजनीति की संज्ञा न दी जाए तो और क्या कहा जाए? इन चुनावों में चुनाव-प्रचार का वही हाल है, वही घोड़े, वही मैदान, खुदा खैर करे।
दिल्ली में चुनाव प्रचार में उद्देश्यपूर्ण एवं जनकल्याणकारी मुद्दों पर शालीन एवं सार्थक बयानों की बजाय कड़वी भाषा का प्रयोग बताता है कि राजनीतिक स्तर पर कटुता बहुत ज्यादा बढ़ गई है। अगर समाज का एक वर्ग सरकार के किसी कदम से असहमत है तो उसकी शिकायत सुनना, उसकी गलतफहमी दूर करना और सरकार में उसका भरोसा बहाल करना उन्हीं का काम है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में विरोध का अधिकार हर व्यक्ति को है। लेकिन इस अधिकार का कोई वर्ग विशेष गलत इस्तेमाल करे तो उसे भी औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। सरकार, समाज और देश के प्रति विषवमन उचित नहीं है। ऐसे विषवमन के खिलाफ भारत के गृहमंत्री हो या वित्तराज्यमंत्री या कोई सांसद यदि माकूल जबाव देते हैं तो उन बयानों को कैसे गलत कहा जा सकता है? नागरिकता कानून के विरोध में गैरकानूनी ढंग से धरना-प्रदर्शन कर रहे लोगों को कैसे जायज माना जा सकता है?
तीनों ही दलों में तीखे एवं कड़वे बयानोंं का प्रचलन बढ़-चढ़ कर हो रहा है। लोकतंत्र में इस तरह के बेतुके एवं अतिश्योक्तिपूर्ण बयान राजनीति को दूषित करते हैं, जो न केवल घातक हैं, बल्कि एक बड़ी विसंगति का द्योेतक हैं। राजनीतिक दलों में पनप रही ये कड़वे बोल की संस्कृति को क्या सत्ता हथियाने की राजनीति नहीं माना जाना चाहिए? लोकतंत्र एवं चुनाव प्रक्रिया को दूषित करने की राजनीतिक दलों की चेष्टाओं पर कौन नियंत्रण स्थापित करेगा। कहीं चुनाव सुधार की प्रक्रिया शेष न हो जाए, यह एक गंभीर प्रश्न है। दिल्ली चुनाव का बड़बोलापन अवश्य विवादास्पद बनता जा रहा है, अनेक गलत बातों की जड़ चुनाव होते हैं इसलिए वहां निष्पक्षता, शालीनता एवं वाणी का संयम जरूरी है।
दिल्ली के लोगों की वर्षों से एक मान्यता रही है कि हमारी समस्याओं, संकटों व नैतिक हृास को मिटाने के लिए कोई रोशनी अवतरित हो और हम सबको उबारे। कुछ तो राजनीतिक लोग अपनी प्रभावी भूमिका अदा करें, ताकि लोगों में विश्वास कायम रहे कि अच्छे आदमी पैदा होने बन्द नहीं हुए हैं। देश, काल और स्थिति के अनुरूप कोई न कोई विरल परिस्थिति एवं राजनीतिक दल सामने आए, विशेष किरदार अदा करें और लोग उसके माध्यम से आशस्त हो जाएं, लेकिन इन चुनावों में ऐसा चमत्कार घटित होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है जो अच्छाई-बुराई के बीच भेद रेखा खींच लोगों को मार्ग दिखा सके, तथा विश्वास दिला सके हैं कि वे बहुत कुछ बदलने में सक्षम हैं तो लोग उन्हें सिर माथे पर लगा लें। जैसाकि हम जानते हैं कि लोग शीघ्र ही अच्छा देखने के लिए बेताब हैं, उनके सब्र का प्याला भर चुका है। आज 5 दिनों के क्रिकेट के टेस्ट मैचों के निर्णयों में उतनी रुचि नहीं जितनी एक-दिवसीय मैच में है। इसलिए अब राम की तरह 14 वर्षों का वनवास व महावीर की तरह 12 वर्षों की कठोर तपस्या का इन्तजार नहीं कर सकते। आज प्रतिदिन कोई न कोई घोटाला उद्घाटित होता है। जनता से टैक्स के रूप में लिए करोड़ों-अरबों की राशि कोई डकार जाता है। अपराध और अपराधियों की संख्या बढ़ रही है। एक शांतिप्रिय व्यक्ति का जीना मुश्किल हो गया है। जो कोई सुधार की चुनौती स्वीकार कर सामने आता है, उसे रास्ते से हटा दिया जाता है। कैसे राजनीति एवं राजनीतिक लोगों पर विश्वास करें?
यह कैसा लोकतांत्रिक ढ़ांचा बन रहा है, जिसमें पार्टियां अपनी सीमा से कहीं आगे बढ़कर लोक-लुभावन वादे एवं बयानबाजी करने में लगी हैं, वे जोड़ने की बजाय तोड़ने वाली राजनीति कर रहे हैं। उसे किसी भी तरह से जनहित में नहीं कहा जा सकता। समाज एवं राष्ट्र-तोड़कर बयान पार्टियों को तात्कालिक लाभ तो जरूर पहुंचा सकते हैं, पर इससे देश के दीर्घकालिक सामाजिक और राष्ट्रीय सौहार्द एवं सद्भावना पर प्रतिकूल असर पड़ने की भी आशंका है। प्रश्न है कि राजनीतिक पार्टियां एवं राजनेता सत्ता के नशे में डूबकर इतने आक्रामक एवं गैरजिम्मेदार कैसे हो सकते हंै? चुनाव में जीत पाने के मकसद से होने वाली चुनावी लड़ाइयों में मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए राजनीतिक दलों की ओर से अतिश्योक्तिपूर्ण बयानों का प्रचलन कोई नई बात नहीं है। लेकिन विडंबना यह है कि चुनावी मौसम में वोट पाने के लिए दिए गए ऐसे ज्यादातर बयान राष्ट्रहित की बजाय राजनीतिक हित के होते हैं।
सत्ताधारी आम आदमी पार्टी ने चुनाव की आहट के साथ ही अनेक जनलुभावन बयानों की झड़ी लगा दी है, अब चुनाव प्रचार में भी इसी मकसद से सक्रिय दिख रही है। पार्टी ने लोगों के सामने वोट हथियाने के लिये जिस तरह का वैचारिक परिवेश निर्मित किया है, उससे जनता का हित कम एवं सत्ता तक पहुंच बनाने की मंशा अधिक दिखाई दे रही है। इस तरह का बड़बोलापन एवं समाज को बांटने की संस्कृति असरकारक बन ही जाती है और अधिकांश वोट करने वाला जनसमूह इस बहकावे में आ ही जाता है। वर्तमान दौर की सत्ता लालसा की चिंगारी इतनी प्रस्फुटित हो चुकी है, सत्ता के रसोस्वादन के लिए जनता और व्यवस्था को पंगु बनाने की राजनीति चल रही है। दिल्ली के राजनीतिक दलों के बही-खाते से सामाजिक सुधार, रोजगार, नये उद्यमों का सृजन, स्वच्छ जल एवं पर्यावरण, उन्नत यातायात व्यवस्था, उच्चस्तरीय स्कूल एवं अस्पताल जैसी प्राथमिक जिम्मेवारियों से जुड़ी योजनाओं एवं मुद्दों की बजाय जातीयता एवं साम्प्रदायिकता का जहर उगलने वाली स्थितियां ज्यादा प्रभावी हैं। बिना मेहंदी लगे ही हाथ पीले करने की फिराक में सभी राजनीतिक दल जुट चुके है। सवाल यह खड़ा होता है कि इस अनैतिक राजनीति का हम कब तक साथ देते रहेंगे? इस पर अंकुश लगाने का पहला दायित्व तो हम जनता पर ही है।
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