सुप्रीम कोर्ट ने संसद को सलाह दी है कि संसद व विधान सभाओं में स्पीकर की शक्तियों पर दोबारा विचार किया जाए। भले ही अदालत ने यह सलाह मणिपुर के एक विधायक के मामले दायर याचिका के संदर्भ में दी है, लेकिन यह समस्या लगभग हर राज्य में है जिससे राजनीतिक टकराव बढ़ा है और विरोध के कारण सदन का कामकाज भी प्रभावित होता रहा है। दरअसल पिछले कई वर्षों से दलबदली के कारण सांसदों व विधायकों को अयोग्य करार देने का मामला चर्चा में रहा है।
स्पीकर सत्तापक्ष से ही सबंधित होता है। ज्यादा राज्यों में डिप्टी स्पीकर भी सत्तापक्ष से ही लिया जाता है। संवैधानिक रूप से यह पद पार्टी से ऊपर होता है। स्पीकर चुने जाने वाले सदस्यों ने बिना किसी राजनीतिक पक्षपात से सदन की कार्रवाई को चलाना होता है लेकिन कर्नाटक सहित अन्य कई राज्यों में दल-बदल के कारण विधायकों को स्पीकर द्वारा अयोग्य करार दिया गया है। यह लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचती रही है। स्पीकर के निर्णय के कारण सरकार भी बदलती रही। इन हालातों में स्पीकर पर यह भी आरोप लग रहे कि वे अपनी पार्टी को लाभ पहुंचा रहे हैं, दूसरी तरफ ऐसीं भी मिसालें हैं जब दलबदल कानून के बावजूद विधायकों के खिलाफ कार्रवाई करने में कई वर्ष तक निकल गए। यहां तक कि कुछ विधायकों द्वारा किसी अन्य पार्टी के चुनाव निशान पर चुनाव लड़ने के बाद भी उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई।
इसी तरह कई विधायकों ने अपनी नई पार्टी बना लेने या इस्तीफा देने के बाद उनके इस्तीफे पर लंबे समय तक विचार नहीं किया गया। स्पीकर का अपना विवेक व अधिकार होते हैं लेकिन राजनीतिक जोड़-तोड़ के कारण स्पीकर की स्थिति संबंधी चर्चा हो गई है। वास्तव में संवैधानिक पद को राजनीति से दूर रखना एक बड़ी जिम्मेदारी है। प्रत्येक संस्था व पद के नियम होने के बावजूद कुछ चीजें केवल विवेक पर निर्भर करती हैं। देश में संसदीय प्रणाली को अपनाया गया है। इस प्रणाली के गुणों के साथ-साथ कुछ खामियां भी हैं जिन्हें दूर कर शानदार बनाया जाना चाहिए। बेहतर हो यदि सरकार व विपक्षी दल इस मामले पर मिलकर विचार कर सर्वसमिति के साथ निर्णय लें, लेकिन यह फिर संभव होगा जब पार्टियां स्वार्थ से ऊपर उठकर देश के हित में सोचने लगेंगी। लेकिन रुझान यह है कि जब कोई पार्टी विपक्ष में होती है तब सरकार पर संवैधानिक पद के दुरुपयोग के आरोप लगाती है। सत्ता में आने पर उसी पार्टी पर फिर वही आरोप लगने लग जाते हैं।
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