प्रेरणास्त्रोत : शहीद भगत सिंह

Shaheed Bhagat Singh
Shaheed Bhagat Singh

किसी महान विचारक ने कहा है, ‘अपने समस्त आदर्शों का लक्ष्य अपने देश, ईश्वर और सत्य को बनाओ। फिर यदि तुम मरते हो या असफल होते हो, तो एक बलिदानी के रूप में मरोगे।’ भगत सिंह को फाँसी से एक दिन पहले प्राणनाथ मेहता ने एक पुस्तक ‘लेनिन की जीवनी’ दी। इस पुस्तक को पढ़ने में वे इतना तल्लीन हो गए कि सुधि नहीं रही कि उन्हें आज फाँसी लगनी है। जल्लाद उन्हें लेने जेल की कोठरी में आ गए। अभी एक पृष्ठ पढ़ना शेष रह गया था। वे हाथ उठाकर बोले, ‘ठहरो, एक बड़े क्रांतिकारी की दूसरे बड़े क्रांतिकारी से मुलाकात हो रही है।’ जल्लाद वहीं ठिठक गए। भगतसिंह ने पुस्तक समाप्त की, फिर कहा, ‘चलो, और वे मस्ती भरे कदमों से फाँसी के तख्ते की ओर बढ़ने लगे। 23 मार्च 1931 की संध्या, 7 बज रहे हैं और फाँसी के तख्त की ओर तीन नवयुवक बढ़ रहे हैं, बीच में भगतसिंह हैं। उन्होंने अपनी दायीं भुजा राजगुरु की बायीं भुजा में तथा अपनी बायीं भुजा सुखदेव की दायीं भुजा में डाल दी। तीनों ने नारे लगाए, ‘इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद।’ फिर गीत गाया और देखते-ही-देखते वे फाँसी पर झूल गए।

लालच का अंत

पुरोहित कपिल दो सोने की मोहरें पाने के लिए राजा को आशीर्वाद देने गए। राजा ने कहा, ‘‘जितना चाहिए माँग लो।’’ कपिल के मन में लोभ आया। वे बोले, ‘‘राजन् सोचकर बताता हूँ।’’ कपिल सोचने लगे, ‘‘दो सोने की मोहरों से क्या होगा? चार माँग लूँ? अरे, जब राजा ही मन माँगी इच्छा पूरी कर रहा है तो चार से क्या होगा? आठ माँग लूँ।’’ क्रमश: उनकी इच्छा बढ़ती चली गई और वे सोचने लगे कि क्यों न राजा का राज्य ही माँग लूँ। पर थोड़ी दूर चलने के बाद उन्हें झटका लगा, ‘‘अरे, यह क्या? मैं दो सोने की मोहरें माँगने आया था और अपने लोभ में राजा का राज्य ही माँगने चल पड़ा! धिक्कार है मेरी आत्मा को।’’ असल में पुरोहित को समझ में आ गया था कि ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है, त्यों-त्यों लोभ बढ़ता है। यही लोभ अनर्थ का मूल है। इस सत्य को समझने के साथ ही वे लालच की मानसिकता से ऊपर उठ गए।