‘मूढ़मते’ अर्थात् मूर्ख लोग कौन है? शंकराचार्य ने स्वयं इसका उत्तर दिया है- ‘‘नास्तिको मूढ़ उच्यते’’ अर्थात् जो आत्मा को नहीं मानते, अनात्मावादी हैं, वे ही मूढ़ हैं। ऐसे लोग जिनका विशाल बहुमत है, जो अपने सामान्य जीवन में तो करों का भुगतान करते हैं, लेकिन वे जीवन की परम अनिवार्यताओं के लिए, जो उन्हें परमात्मा ने उपलबध करवाई हैं, जैसे सूर्य, चंद्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी आदि के लिए कोई कर नहीं देते। उसे उस दाता को, परमातत्व को नहीं पहचानते वे सब मूर्ख हैं, मूढ़मते हैं। जो पदार्थ उपलब्ध हैं, वैज्ञानिक उनका नाप-तोल कर सकते हैं, और उनका विश्लेषण कर सकते हैं। उपलब्ध पदार्थों को विविध रूपों में प्रस्तुत कर सकते हैं। किन्तु वे ऑक्सीजन, हाइड्रोजन अथवा अन्य कोई नया पदार्थ पैदा नहीं कर सकते। यह सृजन केवल परमात्मा की इच्छा से ही हो सकता है। किसी पदार्थ का आधारभूत सम्भरण किए बिना कोई वैज्ञानिक किसी वस्तु का आदि रूप से प्रारभ नहीं कर सकता। वे पृथ्वी, जल अग्नि और आकाश के साम्राज्य के दायरे में असहाय हैं। उनकी गतिविधियाँ प्रकृति के क्षेत्र तक ही सीमित हैं। प्रकृति भी देवत्व की अभिव्यक्ति का एक रूप ही है। मृत्यु का भय मनुष्य के सामने आने वाले समस्त भयों से भयंकरतम है और साथ ही सबसे अधिक मूर्खतापूर्ण है। वह मृत्यु से नहीं बच सकता। जन्म-मृत्यु के इस चक्र से सदा के लिए छुटकारा पाने के लिए एकमात्र उपाय कभी न मरने वाली शाश्वत आत्मा की अनुभूति प्राप्त करना है। यही मनुष्य की वास्तविकता और यही परम सत्य है।
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