देश में एनआरसी, सीएए और एनपीआर को लेकर राजनीति चरम पर है। विपक्षी दलों ने उक्त मामले में तो विरोध करना ही था, अब सत्तापक्ष द्वारा भी सार्वजनिक तौर पर नागरिकता संशोधन बिल के समर्थन में आंदोलन शुरू किया जा रहा है। रोजाना कहीं न कहीं टकराव व हिंसा की घटनाएं घट रही हैं लेकिन इस उथल-पुथल में जनता के मुद्दे इस तरह भुला दिए गए हैं जैसे देश में कोई समस्याएं ही नहीं हैं। विपक्षियों ने देश की आर्थिकता, स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, बेरोजगारी के मुद्दे को समस्या समझना ही छोड़ दिया है अन्यथा नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट का कहीं तो जिक्र होता।
सीएए की कापियां तो फाड़ी जा रही हैं लेकिन बेरोजगारी व कृषि संकट के कारण हो रही आत्महत्याओं का किसी भी पार्टी ने संज्ञान में नहीं लिया। एनसीआरबी की रिपोर्ट सीएए के धरने-प्रदर्शनों की आड़ में ही दबकर रह गई है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2018 में बेरोजगारी के कारण औसतन 35 व्यक्तियों ने रोजाना खुदकुशी की, दूसरे शब्दों में हर दो घंटों बाद 3 बेरोजगार आत्महत्याएं कर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार हर वर्ष दस हजार से अधिक किसान-मजदूर आत्महत्याएं कर गए, किसी भी दल के नेता ने इस रिपोर्ट पर चिंता नहीं जताई व इसे पढ़ने तक की जहमत नहीं की। स्वास्थ्य सेवाओं व प्रबंधों की दुर्दशा पर भी किसी नेता का ध्यान नहीं है। पंजाब के मोगा में गत दिवस एक महिला ने अस्पताल में फर्श पर बच्चे को जन्म दिया, स्टाफ ने उस महिला को दाखिल नहीं किया और आखिर कुछ दिनों बाद बच्चे की मृत्यु हो गई।
दुखी महिला मृत बच्चे को झोली में लेकर बैठ गई लेकिन किसी भी पार्टी का कोई नेता तो दूर एक वर्कर भी सरकार को घेरने नहीं पहुंचा। पता नहीं ऐसीं कितनी ही घटनाएं देश में घट रही हैं, लेकिन कहीं भी धरने में कोई नेता नहीं पहुंचता, लेकिन पार्टी हितों के लिए अपने नेताओं को दिखाने के लिए गड़े मुर्दों पर भी ये लोग जमीन-आसमान एक कर देते हैं। अभी साम्प्रदायिक मुद्दों पर राजनीतिक पार्टियां खूब हंगामा कर रही हैं लेकिन आम आदमी का दम घुट रहा है। जन हितों की अनदेखी कर पार्टी हितों को प्राथमिकता दी जा रही है। बात राजनीतिक नफे-नुक्सान की नहीं बल्कि बात आम आदमी की बुनियादी सुविधाओं की होनी चाहिए। देश की फिक्र होनी चाहिए।
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