राजा भोज स्वयं संस्कृत के विद्वान थे और अन्य विद्वानों का भी खूब सम्मान करते थे। एक बार बाहर के विद्वान भी राजसभा में आमंत्रित थे। राजा भोज ने उनसे कहा कि वे अपने जीवन में घटित सच्ची व आदर्श घटना बारी-बारी से सुनाएँ। सभी विद्वानों ने अपनी-अपनी आपबीती कह सुनाई। अंत में एक दीन-हीन सा दिखाने वाला विद्वान अपने आसन से उठा और बोला, ‘‘मैं क्या बताऊँ , महाराज, मैं वास्तव में तो आपकी राजसभा में आने का अधिकारी ही नहीं था।, किन्तु मेरी पत्नी का आग्रह था, इसलिए चला आया।
यात्रा का ध्यान रखकर उसने एक पोटली में मेरे लिए चार रोटियाँ बाँध दीं। मार्ग में भूख लगने पर जब मैं खाने लगा, तभी एक कुतिया मेरे निकट आकर बैठ गई। स्पष्ट था कि वह भूखी थी। दया भाव से मैंने उसके सामने रोटी फेंक दी, जिसे वह कुतिया चट-पट खा गई। इसके बाद मैंने फिर से खाने के लिए रोटियों को छुआ। वह कुतिया फिर से रोटी की आशा में दुम हिलाने लगी।
मुझे लगा कि वह मन-ही-मन कह रही है कि बाकी रोटियाँ भी दे दो। मैंने उसके सामने वे रोटियाँ भी डाल दीं। बस, महाराज यह है मेरे जीवन में हाल में घटित आदर्श घटना। स्वयं भूखा रहकर एक अन्य भूखे जीव को मैंने तृप्त किया। यह सुखद अहसास मैं कभी नहीं भूलूँगा।’’ राजा भोज इस वृत्तांत से भाव विभोर हो गए। विद्वान को उन्होंने अनेक मूल्यवान वस्तुएँ भेंट स्वरूप दीं।
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