जिस प्रकार कछुआ अपने सिर और पैरों को खोल के अंदर समेट लेता है और उसे चाहे हम मार ही क्यों न डालें, वह बाहर नहीं निकलता, उसी प्रकार जिस मनुष्य ने अपने मन एवं इंद्रियों को वश में कर लिया है, उसका चरित्र भी सदैव स्थिर रहता है। वह अपनी आभ्यंतरिक शक्तियों को वश में रखता है और उसकी इच्छा के विरुद्ध संसार की कोई भी वस्तु उसे बहिमुर्ख होने के लिए विवश नहीं कर सकती। मन के ऊपर इस प्रकार सद्विचारों एवं सुसंस्कारों का निरंतर प्रभाव पड़ते रहने से सत्यकार्य करने की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है और इसके फलस्वरूप हम इंद्रियों को वशीभूत करने में समर्थ होते हैं।
तभी हमारा चरित्र स्थित होता है और हम सत्य लाभ के अधिकारी हो सकते हैं। ऐसा ही मनुष्य सदैव निरापद रहता है, उसमें किसी भी प्रकार की बुराई नहीं हो सकती। इन शुभ संस्कारों से संपन्न होने की अपेक्षा एक और भी अधिक उच्चतर अवस्था है और वह है मुक्ति लाभ की इच्छा। स्मरण रखना चाहिए कि सभी योग का ध्येय आत्मा की मुक्ति है और प्रत्येक योग समान रूप से उसी की ओर ले जाता है। मुक्ति का अर्थ है संपूर्ण स्वाधीनता शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के बंधनों से छुटकारा पा जाना। इसे समझना जरा कठित है। लोहे की जंजीर भी एक जंजीर है और सोने की जंजीर भी एक जंजीर ही है। यदि हमारी ऊंगली में एक कांटा चुभ जाए, तो उसे निकालने के लिए हम दूसरा कांटा काम में लेते हैं, परन्तु जब वह निकल जाता है, तो दोनों को ही फेंक देते हैं, क्योंकि दोनों आखिर कांटे ही तो हैं। इसी प्रकार कुसंस्कारों का नाश शुभ संस्कारों द्वारा करना चाहिए और मन के अशुभ विचारों को शुभ विचारों के द्वारा दूर करते रहना चाहिए, जब तक समस्त अशुभ विचार नष्ट न हो जाएं।
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