कुरूक्षेत्र में मुद्रल नामक ऋषि थे। वे धर्मात्मा, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ तथा ईर्ष्या-क्रोध से रहित थे। वे खेतों में गिरा अन्न चुनकर उसी से स्वयं तथा परिवार का पोषण करते थे। अतिथि आ जाए तो उसे भी उसी एकत्र अन्न में से भाग देते थे। उनकी दान की महिमा सुन ऋषि दुर्वासा परीक्षा लेने के उद्देश्य से उनके पास पहुंचे। मुद्रल ऋषि के पास थोड़ा सा अन्न था जो उन्होंने बड़े आदर के साथ दुर्वासा को अर्पित कर दिया। कुछ दिनों बाद दुर्वासा फिर मुद्रल के पास पहुंचे। ऋषि ने फिर उनका सत्कार किया और स्वयं परिवार सहित भूखे रह गए।
लगातार छह पखवाड़े तक दुर्वासा आते रहे और हर बार मुद्रल का सारा अन्न ग्रहण करते रहे। परिणामस्वरूप छह पखवाड़े तक मुद्रल को परिवार सहित अन्न का दाना तक नहीं मिल सका। बावजूद इसके ऋषि और उनके परिवार ने रंचमात्र भी क्रोध का स्पर्श नहीं होने दिया। अत: परीक्षा पूर्ण हुई और दुर्वासा ने ऋषि को स्वर्ग जीने का आशीष दिया। दुर्वासा का वरदान घोषित हुआ और देवदूत मुद्रल को सशरीर लेने के लिए विमान के साथ प्रकट हुए। तब मुद्रल ने कहा-मैं यहीं अच्छा हूँ।
जिस स्वर्ग में पूर्ण तृप्ति नहीं, परस्पर प्रतिस्पर्धा और असुरों के आक्रमण से नित्य पुण्य क्षीण होने का भय लगा रहे, उससे तो यह संसार ही अच्छा है। जहां अहंकाररहित होकर दान और सेवा का भाव रहे तो स्वर्ग जाने की कामना ही न हो। तब दुर्वासा ने उन्हें यशस्वी होने का आर्शीवाद दिया और देवदूत नमन कर विमान सहित स्वर्ग लौट गए। दरअसल, अहंकाररहित होकर दान और सेवा का भाव है तो धरती ही स्वर्ग बन सकती है। ऐसे भाव वाले के लिए यह संसार स्वर्ग से भी ज्यादा अच्छा हो जाता है। ऐसा भाव पैदा करें।
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल कने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।