किसानों की सुध लेने की जरूरत

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हाल ही में भारत दौरे पर आईं जर्मनी की खाद्य एवं कृषि मंत्री जूलिया क्लोकनर ने केंद्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर से मुलाकात के दौरान कृषि बाजार विकास में सहयोग करने के निमित्त ‘संयुक्त घोषणा-पत्र’ पर हस्ताक्षर किए तथा तकनीक और प्रबंधन संबंधी सहयोग देकर किसानों की आय दोगुनी करने में मदद का भरोसा दिलाया। गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने वर्ष 2022 तक देश के किसानों की आय को दोगुना करने का संकल्प लिया है। हालांकि यह एक चुनौतीपूर्ण लक्ष्य है,जिसे प्राप्त करने में अब केवल दो वर्षों का समय ही शेष है।

ऐसे में कृषि तकनीक और प्रबंधन में अग्रणी रहे जर्मनी से सहयोग मिलने के बाद उम्मीद जगी है कि देश में किसानों के जीवन में सुधार आज या कल जरूर आएगा। भारत की पहचान एक ‘कृषि प्रधान देश’ के तौर पर रही है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 16 फीसद योगदान देने के साथ ही कृषि इस मुल्क की करीबन 50 फीसद आबादी को रोजगार भी उपलब्ध कराता है। देश में तीव्र औद्योगिक विकास के बावजूद एक बड़ी आबादी आज भी कृषि एवं इससे संबद्ध उद्योगों पर निर्भर है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।

हालांकि मौजूदा समय में भारतीय कृषि विभिन्न समस्याओं से जूझ रही है। एक तरफ पर्यावरण और जैव-विविधता को सहेजने की चुनौती है, तो दूसरी तरफ किसानों की आमदनी को बढ़ाना और उनके भरोसे को जीवित रख पाना भी किसी चुनौती से कम नहीं है। हमारे किसानों ने खेती का एक ऐसा दौर भी देखा है,जब खेत अन्न के रूप में सोना उगलते थे। मृदाएं बिना किसी रसायनिक उर्वरक की सहायता से भरपूर उत्पादन देती थीं। तब कीटनाशकों का प्रयोग भी कम किया जाता था और खेत नाना प्रकार की फसलों से लहलहा उठते थे।

लेकिन मौजूदा समय में भारतीय कृषि की दयनीय स्थिति को देखते हुए लगता है कि इसे किसी की ‘नजर’ लग गई है। अब यह कृषक परिवारों के लिए फायदे का सौदा नहीं रही!एक तरफ मृदा रूठकर दिन-ब-दिन बंजर होती जा रही है,तो दूसरी तरफ इंद्रदेव की नाराजगी भी खेती-किसानी के लिए प्रमुख समस्या बन चुकी है। इस वजह से खेती की ओर किसानों का रुझान पहले से कम हुआ है। अब वे खेती की ओर पूरी तरह उदासीन नजर आ रहे हैं। खेती से इतर अन्य आर्थिक क्रियाओं में किसानों की बढ़ती दिलचस्पी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

साफ तौर पर लगता है कि प्राथमिक क्षेत्रक में कृषि अब घाटे का सौदा बन गयी है,जिसकी वजह से देशभर में रोजाना करीबन ढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं। कृषकों की अरुचि का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वर्ष 2007-2012 के बीच केवल पांच वर्षों में करीब 3.2 करोड़ किसानों ने ग्रामीण क्षेत्र से शहरों की ओर रोजगार के लिए पलायन कर लिय।

ग्रामीण अंचलों की यह जमीनी सच्चाई है कि खेती में लागत और मुनाफे के बढ़ते नकारात्मक अंतर को देख किसान अपने पुश्तैनी धंधे छोड़कर औद्योगिक क्षेत्र की ओर पलायित हो रहे हैं। कृषि क्षेत्र में लागत और मुनाफे के बढ़ते अंतर ने किसानों को सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर किया है। मौसम की मार और ऊपर से सरकारी उपेक्षा ने किसानों को आत्महत्या करने तक को मजबूर कर दिया है। हर वर्ष किसान और खेती में सुधार के लिए विभिन्न स्तरों पर ढेरों घोषणाएं की जाती हैं,लेकिन व्यवहार के धरातल पर इन वादों का हवा-हवाई होना, किसानों के साथ छलावा ही कहा जाएगा।

याद कीजिए,यह वही देश है जहां किसानों ने सामूहिक श्रम से सत्तर के दशक में खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में ‘हरित क्रांति’ लाकर देश को खाद्यान्न के मामले में संपन्न और आत्मनिर्भर बना दिया था। उस समय हम इस मामले में विश्व के प्रेरणास्रोत भी बन गये थे। कृषि सुधारों और किसानों की मेहनत ने देश में अनाजोत्पादन की गंगा बहा दी थी। लगभग पांच दशक वर्ष पूर्व स्थिति कितनी स्वर्णिम थी और आज हालात ये हैं कि हर रोज हमारे किसान आत्महत्या कर रहे हैं!हर तरफ से उपेक्षित किसान जब मदद की अंतिम उम्मीद भी धूमिल पड़ती महसूस करता है,तो मजबूरीवश वह आत्महत्या की ओर देखता है।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के ‘एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया’-2015 रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक, तेलंगाना, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में किसानों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति सर्वाधिक है। आंकड़ों पर विश्वास करें तो करीबन 39 फीसदी किसानों ने दीवालिया होने,कर्ज के बोझ तले दबे होने या कृषि संबंधी अन्य मसलों की वजह से आत्महत्या करने का फैसला किया,जबकि 20 फीसद कृषि-श्रमिकों के आत्महत्या करने का वजह भी यही रही।

सवाल यह है कि आखिर खेती और किसानों की इस दयनीय और सोचनीय स्थिति का जिम्मेवार कौन है? क्या केवल प्राकृतिक कारकें ही उत्तरदायी हैं या देश की मौजूदा राजनीति भी? यदि राजनीतिक दलों ने किसानों की मौजूदा स्थिति को राजनीति की शक्ल ना देकर अपने पार्टी फंड का कुछ फीसद हिस्सा भी किसानों को चिंताओं की गर्त से निकालने के लिए प्रयोग किया होता,तो आज लोकतंत्र न सिर्फ अपने उद्देश्यों में सफल होती,बल्कि स्वयं को गर्वित भी महसूस करता। लेकिन, दुर्भाग्यवश ऐसा हो नहीं पाता है, क्योंकि सभी राजनीतिक पार्टियां ‘वोट बैंक’ रूपी तालाब का पानी पीकर ही अपनी ‘प्यास’ बुझाया करती हंै।

शायद इसीलिए उनके द्वारा लाभार्थियों को दी जाने वाली ‘सहानुभूति’ और ‘आर्थिक सहायता’ भी राजनीति से प्रेरित नजर आती है। सच तो यह भी है कि आज देश में किसी को किसानों की फिक्र ही नहीं है!आदिकाल से ही देश में अन्नदाता पूजनीय रहे हैं। अन्नदाता को ग्रामदेवता माना जाता है। लेकिन बदलते समय के साथ उनकी स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती चली गई है। अपने खून-पसीने से देशवासियों का पेट भरने वाले अन्नदाता आज स्वयं दाने-दाने को मोहताज हैं। आज वे परिस्थिति के आगे खुद को लाचार और बेबस पा रहे हैं!

दरअसल खेती से टूटता किसानों का मोह समाज के लिए चिंता तथा चिंतन का विषय है। जरूरी यह भी है कि निराशा से ग्रस्त किसानों को आर्थिक और सामाजिक सहायता देकर उनको दुखों से मुक्ति दिलाने के सार्थक प्रयास किए जाएं,ताकि खेतीबारी में उनका भरोसा बना रहे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कृषि और कृषकों की दशा में सुधार के बिना देश का विकास संभव नहीं है। अगर इसी तरह किसानों का कृषि क्षेत्र से पलायन होता रहा,तो कुछ वर्षों में स्थिति अत्यंत भयावह हो जाएगी। देश में कृषि कृषकों के लिए जीवन जीने का आधार रही है। सरकार को किसानों के हितों की रक्षा हेतु अपनी प्रतिबद्धता दिखानी होगी। तभी बात बनेगी।

खेती और किसानों की समस्याओं को नजरअंदाज कर देश के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। जरूरी यह भी है कि किसानों के हित में ना सिर्फ दर्जनों नीतियां बनें, बल्कि उन नीतियों और वादों का उचित कार्यान्वयन भी हों। आज जरूरत इस बात की भी है कि सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठन साझे प्रयास के तहत किसानों को विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकालने का प्रयास करे,अन्यथा आने वाला समय हम सबके लिए तकलीफदेह होगा। याद रहे,जब-जब हमारे अन्नदाता रोने को मजबूर हुए हैं,तब-तब प्रकृति ने मानव समुदाय की कठिन परीक्षा ली है।
सुधीर कुमार

 

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