महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के गठबंधन में जो कुछ हुआ उसे सारे देश ने देखा। शिवसेना को कुर्सी की चाहत और महत्वाकांक्षा के चलते गठबंधन तार-तार हो गया। जबकि लोकसभा चुनाव में दोनों दलों ने मिलकर अच्छी खासी सीटें बटोरी थी। दोनों दल पिछले लगभग तीन दशकों से एक साथ थे। जो कुछ भी महाराष्टÑ में हुआ है उसका असर देशभर में गठबंधन की राजनीति पर जरूर पड़ेगा। महाराष्टÑ से जो राजनीतिक संकेत निकलकर बाहर जा रहे हैं, उसके मुताबिक अब गठबंधन के लिए पूर्व की शर्तों का कड़ाई से पालन और उसका लिखित दस्तावेज शायद आने वाले दिनों में अनिवार्य हो जाएगा। गठबंधन की राजनीति की पुरानी परंपरा देश में है।
1990 के दशक में राजनीतिक संघवाद और आर्थिक उदारीकरण के मामले में भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में जो परिवर्तन हुए हैं, उनका महत्वपूर्ण पहलू 1989 से नई दिल्ली में मौजूद गठबंधन सरकारें और अल्पमत सरकारें भी हैं। भारत में गठबंधन और अल्पमत सरकारें संसदीय व्यवस्था की उस नाकामी का नतीजा हैं, जिसके तहत वह सरकार बनाने के लिए निचले सदन (लोकसभा) में पूर्ण बहुमत हासिल करने के पैमाने पर खरी नहीं उतर पाती है। 1989 के बाद से कोई भी पार्टी सदन में बहुमत हासिल नहीं कर पाई है। केवल 2014 और 2019 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 282 बहुमत से भी ज्यादा सीटें हासिल कर पाई। 2019 में एनडीए को ऐतिहासिक बहुमत मिला।
महाराष्ट्र से पूरे देश को यही संकेत मिल रहा है। इसका सीधा असर अभी झारखंड की राजनीति में देखने को मिल रहा है। यहां दोनों परस्परविरोधी खेमा इसी गठबंधन की राजनीति की गांठ सुलझाने में व्यस्त हैं। और यह गांठ हैं कि यह सुलझाने की बजाए और उलझती चली जा रही है। भाजपा विरोधी गठबंधन की बात करें तो इसमें से पहले ही झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष खुद को अलग कर चुके हैं। बदली हुई परिस्थितियों में अचानक ही इस दल के नेता बाबूलाल मरांडी किसी धूमकेतु की तरह झारखंड की राजनीति में चमकने लगे हैं। झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें आज भी याद किया जा रहा है, यह अपने आप में बड़ी बात है। झारखंड विकास मोर्चा को अपने पाले में रखने की भरसक कोशिश की जा रही है।
लेकिन जो लोग बाबूलाल मरांडी को जानते हैं, उन्हें अच्छी तरह पता है कि एक बार किसी फैसले पर पहुंचने के बाद वह उससे नहीं डिगते। इस खेमा में असली संघर्ष झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस के बीच है। दोनों के बीच अनेक सीटों पर तनातनी है। महाराष्टÑ से जो कुछ निकलकर सामने आया है, उसका बेहतर निष्कर्ष यह है कि बाद में झगड़ा करने के पहले ही वे अपने विवादों को चुनाव से पहले ही निपटा लेना चाहते हैं। यह भी महाराष्टÑ से मिले संकेतों का ही नतीजा है कि राजनीतिक दल अब चुनावी लाभ के साथ साथ भावी परिणामों की चिंता पहले से करने लगे हैं।दूसरे खेमा में भारतीय जनता पार्टी और अल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन के बीच सीटों की खींचतान है।
वहीं झारखण्ड में एनडीए के सहयोगी रामविलास पासवान की लोकशक्ति जन पार्टी ने भी गठबंधन से अलग होकर अकेले अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरने का ऐलान किया है। पार्टी 81 में से 50 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। लोजपा प्रत्याशियों की पहली सूची जारी भी कर चुकी है। मतलब साफ है कि महाराष्टÑ की तर्ज पर गठबंधन के दल सारी स्थिति साफ करना चाहते हैं, ताकि बाद में कोई विवाद की स्थिति पैदा न हो। भाजपा इस मुद्दे पर महाराष्टÑ से मिले झटके से उबर नहीं पायी है, लिहाजा वह सरकार चलाने के लिए दोबारा से आजसू पर तो कतई निर्भर नहीं रहना चाहती। अंदरखाने से यह संकेत मिल चुके हैं कि भाजपा ने आजसू के कम सीट देकर अपने बल पर बहुमत हासिल करने की रणनीति पर काम करना प्रारंभ कर दिया है। इससे गठबंधन की गाड़ी को भले ही झटका लगे लेकिन भारतीय राजनीति को एक बदलाव की तरफ ले जाना भी अच्छी बात है। जिस तरीके से महाराष्टÑ से विवाद के राष्टÑीय निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं, उससे गठबंधन की राजनीति पहले के मुकाबले और परिपक्व होगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है।
बदलती राजनीतिक तस्वीर के बीच एक पार्टी के प्रभुत्व वाली बहुदलीय व्यवस्था के बजाय राजनीतिक बहुलवाद कायम हो गया। विविधता भरी भारतीय जनता को देखते हुए यह स्वाभाविक भी था। क्षेत्रीय, भाषाई और सांस्तिक स्तर पर आकांक्षाएं जगीं, कई प्रकार की राजनीतिक और सामाजिक विविधता सामने आई, जिसने नस्ली, जातीय, धार्मिक और ऐसे ही अन्य पहलुओं को स्वर दिया। क्षेत्रीय चेतना ने कई नई राजनीतिक पार्टियों को बढ़ावा दिया। क्षेत्रीय चेतना हरेक राज्य में अलग-अलग थी और गठबंधन व्यवस्था ही इकलौती व्यवस्था थी, जिसमें क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों को आराम से जगह मिल सकती थी।गठबंधन की राजनीति की बात करें तो उत्तर प्रदेश में यह प्रयोग लोकसभा में भी विफल साबित हुआ है जबकि बसपा और सपा के एकसाथ चुनाव लड़ने के बाद भी दोनों के वोट बैंक एक दूसरे की झोली में नहीं गये हैं।
बिहार में नीतीश कुमार को भाजपा से ज्यादा कुछ उम्मीद नहीं है। दरअसल देश की राजनीति में जिस तरीके से क्षेत्रीय मुद्दे प्रभावी हो रहे हैं, उसी अनुपात में क्षेत्रीय दलों की ताकत भी बढ़ती जा रही है। वैसे यह शाश्वत सत्य है कि जब किसी राजनीतिक पार्टी की ताकत बढ़ती है तो उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी बढ़ती जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गठबंधन काल से निकली भारतीय राजनीतिक पार्टियां इतनी परिपक्व या प्रतिबद्घ नहीं हो पाई हैं कि वे संसदीय लोकतंत्र की जरूरतों को पूरा कर सकें। कई राज्य स्तरीय पार्टियां नई हैं और बचकाना व्यवहार करती हैं। लोकतंत्र की खातिर सहिष्णुता, समझदारी, सलाह-मशविरे और समझौते की भावना उनके भीतर कतई नहीं है।
-डॉ़ श्रीनाथ सहाय
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