पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा और रक्तपात पुरातन संस्कृति रही है। इस तरह की हिंसायें क्यों होती हैं और कौन कराता है। हिंसा के पीछे मकसद क्या होता यह किसी से छुपा नहीं है। राजनीति में विचारों के बजाय तलावारों की संस्कृति क्यों बढ़ रही है? यह ज्वलंत प्रश्न है। बुद्ध के संदेश अहिंसा परमों धर्म के विलोमी रास्ते पर हम क्यों चलने लगे हैं? सरकारें और उसके समर्थक इतने नीचे क्यों गिरने लगे हैं? यह कहना मुश्किल है। हमारे भीतर विचारों की संवेदना और इंसानियत मर रही है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद की घटना हमें झकझोड़ती है। ऐसी आजादी का भी भला क्या मतलब जो आजादी होकर भी गुलामी हो। अंग्रेजों और मुगलों की गुलामी से हिंदुस्तान आजाद हो गया, लेकिन सियासी गुलामी से कब आजाद होगा कहना मुश्किल है।
आजादी के बाद हमें संविधान और विधान मिला। सामंतवादी और रजवाड़ों का दौर खत्म हुआ। लोकतांत्रिक व्यवस्था का सूत्रपात हुआ। सरकारें और व्यवस्था मिली। लेकिन जमींनी हकीकत है कि हमें विचार नहीं मिल पाए। पूरी दुनिया में हम प्रभावशाली लोकतंत्र होने का दंभ भरते हैं। जबकि हमारी सोच आज भी सामंत और भोगवादी है , जिसकी बदबू चारों ओर बिखरी पड़ी है। क्योंकि देश सामंती और रजवाड़ों की पृष्ठभूमि से निकल कर लोकतंत्र की दहलीज पर पहुंचा था। जिसकी वजह से हमारी लोकतांत्रिक व्यस्था में वह सोच, संस्कृति और संस्कार आज भी कायम है। पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में बढ़ती राजनीतिक हत्याएं इसका प्रबल उदाहरण हैं।
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में एक शिक्षक परिवार के तीन लोगों की सिर्फ इसलिए हत्या कर दी गयी कि वह हिंदू विचारधारा के संगठन आरएसएस से जुड़े थे। जिन लोगों की हत्या की गयी उसमें शिक्षक बंधु प्रकाश पाल, उसकी गर्भवती पत्नी और आठ साल का बच्चा भी शामिल है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दावा है कि मारे गए परिवार का ताल्लुक आरएसएस से था। पश्चिम बंगाल की ममता सरकार क्या संदेश देना चाहती है? क्या किसी विचारधारा से जुड़ना गुनाह है? क्या हिंदू परिवार में जन्म लेना अभिशाप है। क्या हिंदू धर्म और संस्कृति को बढ़ावा देना पाप है? यह क्या भारतीय संविधान के खिलाफ है? पश्चिम बंगाल को क्या ममता हिंदुत्व से मुक्त करना चाहती हैं? आखिर इस तरह की हिंसा का मकसद क्या है। हम विचारधारा को तलवारों से नहीं काट सकते। राजनीति में हिंसा की नीति अपना कर हम सत्ता के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकते हैं। पश्चिम बंगाल में जब 40 साल पुराना वामपंथ का किला ढ़ह गया।
सत्ता की असीम चाहत इतनी है कि विकास की योजनाओं में भी वोटबैंक का छौंका लगाया जा रहा है। लेकिन जब विचारों को सत्ता के लिए रक्तपात से जोड़ दिया जाय तो उसका परिणाम सुखद नहीं होता। देश में जिस तरह की राजनैतिक संस्कृति पनप रही है वह गहरी, घाव, वेदनावाली के साथ घातक और विद्रूप है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में हमने विचारों के बजाय सियासी परिभाषाएं गढ़ना शुरू कर दिया है। इकलाख, तबरेज , अकबर, बंधु प्रकाश, कांसगज जैसी सैकड़ों घटनाओं को हमने जाति, धर्म, संप्रदाय में बांट दिया है। हिंदू-मुसलमान में बांट दिया है। लेकिन हमने यह कभी गौर नहीं किया कि मरने वाला कोई पाकिस्तानी, ईरानी, अफगानी, जर्मन, रसियन, फ्रांसिसी नहीं हिंदुस्तानी ही है। अगर हम माबलिंचिंग और राजनैतिक हत्याओं से जुड़ी ऐसी घटनाओं को एक हिंदुस्तानी के नजरिये से देखते तो हमारी सोच इतनी नीचे नहीं गिरती। लेकिन हमारे गिरने का पैमाना हर अनैतिकता को लांघ गया है।
राजनैतिक हत्याओं से किसका फायदा और किसका नुकसान होता है यह विचारणीय बिंदु है। जमींनी कार्यकर्ता जिसके लिए झंडे लेकर दौड़ते हैं, नारे लगाते हैं और शहीद हो जाते हैं, लेकिन उन्हें क्या मिलता है? राजनैतिक हिंसा में अब तक हजारों लोगों का कत्ल हुआ है, लेकिन यक्ष प्रश्न है कि संबंधित राजनैतिक शोहदों और उनके परिवारों या उत्तराधिकारियों को क्या मिला। बस झूठी श्रद्धांजलि और दो बूंद आंसू के अलावा और क्या? परिवार के मुखिया के जाने के बाद ऐसे हजारों परिवारों की हालत क्या है। सत्ता में आने के बाद संबंधित दलों ने क्या कभी इसका सर्वे कराया? राजनैतिक फायदे के लिए देश और समाज को बांटने की साजिश की जाती है।
लेकिन संबंधित परिवारों से क्या कोई व्यक्ति शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचा यह अहम सवाल है। जबकि देश के बड़े राजनीतिक घरानों और राजनेताओं की पूरी पीढ़ी सत्ता का सुख भोगती है। वंशवाद सियासी घरानों और राजनेताओं की विरासत बन गया है। राजनैतिक हत्याओं और हिंसा की भेंट हमेशा अदना कार्यकर्ता ही चढ़ता है। कोई बड़ा राजनेता उसमें शामिल नहीं होता। राजनैतिक दल और राजनेता खुद के फायदे के लिए निर्दोष लोगों की बलि चढ़ा बंधाई संदेश में एक दूसरे को शाल, साड़ी, रसगुल्ले और मिठाईयां भेजते हैं। भारतीय लोकतंत्र हमेंशा सहिष्णुता का समर्थक रहा है। यहां हिंसा का कोई स्थान नहीं है। राजनैतिक हत्याओं पर विराम लगना चाहिए। लोकतंत्र में तलवारों के बजाय विचारों को अहमियत मिलनी चाहिए।
प्रभुनाथ शुक्ल
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