देश में नागरिक कौन है और कौन नहीं हैं इसकी चिन्ता इन दिनों तेजी लिये हुए है। देखा जाये तो यह काल और परिस्थिति के बदलाव स्वरूप लिया गया एक ऐसा फैसला है जिसके चलते सरकार गैर नागरिकों की तलाश कर रही है पर इस निर्णय के चलते सरकार की नीति और नीयत पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं। इसकी एक वजह राजनीति तो दूसरी सरकार का दुरूस्त होमवर्क का ना होना भी माना जा सकता हैं। जबकि दो टूक यह है कि एनआरसी घुसपैठियों को चिन्हित करने की एक सकारात्मक व्यवस्था है जो सात दशक पुराना है हालांकि इसकी जद में केवल असम राज्य था अब पूरे देश में लाने की बात हो रही है।
इन दिनों देश की जनसंख्या एक सौ पैंतीस करोड़ से अधिक है। फिलहाल जनसंख्या विस्फोट के चलते देश कई समस्या से जूझ रहा है। ऐसे में यह कदम लाजमी है कि घुसपैठियों को बाहर का रास्ता दिखाया जाए। बावजूद इसके सवाल यह है कि क्या जिस संतुलन के साथ एनआरसी को विस्तार देना चाहिए वैसा सरकार द्वारा किया जा रहा हैं। प्रश्न तो यह भी है कि एनआरसी के चलते परेशानी और बेचैनी का सामना किसे करना पड़ रहा है। जाहिर है घुसपैठियों की खोज में मूल नागरिक भी दस्तावेज आदि की पेशगी को लेकर कुछ समस्याएं ंतो झेलेंगे ही।
फिलहाल सच्चाई क्या है इसके लिए एक बड़े शोध की आवश्यकता है मगर सरसरी तौर पर देखें तो एनआरसी का मतलब धुसपैठियों को चिन्हित करके उन्हें देश निकाला देना है पर असम में जो हालिया स्थिति बनी उसमें करीब सवा तीन करोड़ से अधिक जनसंख्या में 19 लाख लोग ऐसे हंै जो एनआरसी के चलते सूची से बाहर हैं जिसमें 13 लाख हिन्दू शामिल हंै। जिसे लेकर सरकार के समक्ष बड़ा सवाल यह है कि यह हिन्दू कहां से आये हैं सम्भव है कि यह या तो भारत के हैं और सूचीबद्ध नही हैं या फिर बंगलादेश से पलायन करके आये हंै स्थिति कुछ भी हो असम में सरकार जैसा सोच रही थी नतीजे वैसे नही हैं। फलस्वरूप सरकार खुद ही दुविधा में फंसी हुई है।
असम में पहली बार एनआरसी 1951 में बना था तब बने रजिस्टर में उसी साल हुई जनगणना में शामिल हर व्यक्ति को राज्य का नागरिक माना गया था। वक्त बीतने के साथ भूगोल और इतिहास भी बदल गया। इस बदलाव ने बीते कुछ सालों से एक नई आवाज इस रूप में आयी की एक बार फिर एनआरसी को अपडेट किया जाये। जिसके चलते असम में एक बार फिर एनआरसी की रोपाई हुई। दरअसल पिछले कई दशकों से राज्य में पड़ोसी देशों खासकर बंगालदेश से हो रही अवैध घुसपैठ ने एनआरसी की आवाज को बुलन्द किया। जिसे देखते हुए असम में 2013 में एनआरसी कार्यालय बना मगर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में काम 2015 में शुरू हुआ।
पहली सूची 2017 में तो 2018 में प्रकाशित हुई। जिसके बाद उक्त चित्र सामने आया और शायद सरकार के सामने एक अलग चुनौती भी खड़ी हो गई बावजूद इसके सरकार इसे भारत के पूरे मानचित्र पर उतारना चाहती है। गौरतलब है भारतीय संविधान के भाग-2 में अनुच्छेद 5 से 11 के बीच नागरिकता की चर्चा है। 1951 में जब एनआरसी असम में लाया गया तब बंगलादेश नहीं बना था ऐसे में अब इसमें संशोधन लाना जरूरी समझा गया। इसी के चलते अब सिर्फ उन लोगों का नाम सूची में शामिल किया गया जो 25 मार्च 1971 के पहले से असम में रह रहे हैं पर इस सूची में 19 लाख लोग शामिल नहीं हैं जिसके चलते तनाव व आक्रोश का माहौल व्याप्त है। वैसे देखा जाये तो 1971 से 1991 के बीच असम में बड़ी संख्या में मतदाता बढ़े थे इससे लगता है कि घुसपैठ तेजी से हुआ था।
असल मुद्दा क्या है इस पर भी गौर करने की जरूरत है। 1979 में आॅल असम स्टूडेंट्स यूनियन और आॅल असम गण संग्राम परिषद् ने असम में अवैध रूप से रह रहे प्रवासियों के खिलाफ हिंसक आन्दोलन छेड दिया जो 6 वर्ष तक जारी रहा। साल 1995 में भारत सरकार और इन संगठनों के बीच समझौते के चलते हिंसा पर रोक लगी और असम में नई सरकार का गठन हुआ।
इसी समझौते में एक अहम बात यह भी थी 1951 के एनआरसी में संशोधन किया जायेगा जिसके फलस्वरूप मोदी सरकार का एनआरसी पर स्टैण्ड इन दिनों काफी कड़ा दिखायी दे रहा है। इसमें कोई दुविधा नहीं की म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमान और बंगलादेशी नागरिक पूर्वेत्तर समेत पश्चिम बंगाल में घुसपैठ किये हैं। शायद रोहिंग्या देश के अन्य हिस्सों में मिल सकते हैं और यही बात बांग्लादेशियों के लिए भी कहा जा सकती है। एनआरसी के लागू होने से अनागरिकों की पहचान तो सम्भव है पर यह इतना आसान काज शायद नहीं है। वैसे सरकार जिस शीघ्रता से मैदान मारने की फिराक में रहती है वह भी लोगों की बेचैनी का मूल कारण हो सकता है। एनआरसी घुसपैठियों की पहचान कराने में मदद तो करेगी मगर उसके बाद सरकार का क्या कदम होगा इस पर भी उन्हें शायद अभी होमवर्क करना बाकी है।
सुशील कुमार सिंह
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