आंध्र प्रदेश के बाद कर्नाटक की भाजपा सरकार ने तीन उप-मुख्यमंत्री नियुक्त कर राजनीति में कुर्सी की लालसा को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। विधायक तो मंत्री बनकर भी खुश हो जाते हैं, लेकिन चहेतों को उप-मुख्यमंत्री बनाकर खुश किया जाने लगा है। यह मनुष्य की प्रवृत्ति है कि जैसे-जैसे लालच बड़ा दिया जाता है, उसकी इच्छा भी बढ़ती जाती है। आंध्र प्रदेश में पांच उप मुख्य-मंत्री हैं। दरअसल उप-मुख्यमंत्री की आवश्यकता गठजोड़ सरकारों वाले राज्यों में सामने आई थी। सत्ता में सहयोगी पार्टियों के साथ सरकार बनाने वाली पार्टी अपना मुख्यमंत्री बना लेती है
और छोटी पार्टी को उप-मुख्यमंत्री बनाकर बराबर सम्मान दिया जाता है। बिहार और जम्मू कश्मीर में भी यह अनुभव किए गए लेकिन कर्नाटक में सरकार ही भाजपा की है जहां कोई गठबंधन नहीं। ऐसा ही कर्नाटक में है गठबंधन सरकारों में भी केवल एक उपमुख्यमंत्री के साथ काम चलता रहा है लेकिन अब एक पार्टी की सरकार में ही तीन से पांच तक उप-मुख्यमंत्री नियुक्त करने की नई परम्परा शुरू हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने विधायकों की कुल संख्या के 15 प्रतिशत विधायकों को मंत्री बनाने की सीमा तय कर सरकारी खर्च घटाने का प्रयास किया था फिर भी सत्तापक्ष ने सुविधाएं लेने के लिए नया रास्ता ढूंढ लिया है और मुख्य संसदीय सचिव का फार्मूला बना लिया। अब सत्तापक्ष के सभी विधायक मंत्री, या मुख्य संसदीय सचिव बनाकर खुश कर दिए जाते हैं।
वास्तव में तो मतदान में हारे हुए आधे नेता भी बोर्डों/ निगमों के अध्यक्ष बनकर सत्तासुख हासिल करने में सफल हो जाते हैं। राजनीति को सुविधाएं लेने का माध्यम बनाने से राजनीति में निरंतर गिरावट आ रही है। सुविधाओं के कारण ही नेता टिकट हासिल करने और चुनाव जीतने के लिए करोड़ों रुपए खर्च देते हैं। नाराजगी दूर करने या बगावत को दबाने के लिए पदों का लालच दिया जा रहा है जिस कारण दलबदल की समस्या बढ़ रही है। राजनीति सेवा थी, जो अब नौकरी की तरह बन रही है। यह भी हैरानी की बात है कि सांसदों /विधायकों के वेतन और भत्तों में वृद्धि की बात हो या उप-मुख्यमंत्री नियुक्त करने का मामला कोई भी पार्टी विरोध नहीं करती है लेकिन यह मूक सहमति लोकतंत्र व देश के हित में नहीं।