देश की अग्रणी शैक्षणिक संस्थाएं इस वक्त कट्टर राजनीतिक गतिविधियों का शिकार हो रही हैं। जेयएनयू यूनिवर्सिटी दो अलग-अलग विचारधाराओं वाली स्टूडैंट यूनियनों के टकराव का अखाड़ा बनी हुई है। ताजा हालात यह हैं कि मामले की संवेदनशीलता के मद्देनजर यूनिवर्सिटी प्रशासन को कैंपस में से वीर सावरकार, शहीद भगत सिंह व सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमाएं हटानी पड़ी हैं। पिछले कई दशकों से यह टकराव रूकने का नाम नहीं ले रहा है।
बड़े दुख की बात है कि अब कौन देश भक्त है और कौन नहीं? इसका सर्टीफिकेट विद्यार्थी संगठन दे रहे हैं। कोई महांतमा गांधी को राष्ट्र पिता व कोई उनको देश को बांटने का दोषी कह रहा है। कोई वीर सावरकार को सच्चा देश भक्त और कोई अंग्रेज भक्त बता रहा है। दरअसल छात्र शक्ति अपनी उम्र व जज्बे के कारण जोशीली होती है जो किसी भी आंदोलन को तेज गति देती है, आजादी की लड़ाई में छात्र शक्ति ने महत्वपूर्ण रोल अदा किया था परंतु आजादी के बाद यह ताकत देश के नवनिर्माण में हिस्सा बनने की बजाय राजनीतिक पार्टियों की लहर में ऐसी खो गई कि दो विचारधाराएं शत्रु गुटों में बदल गई।
वैचारिक मतभिन्नता के बावजूद मानवता और विकास की अहमियत को कोई भी विचारधारा नकार नहीं सकती, जहां तक देश की आजादी की लड़ाई का सवाल है तब उदारवादी और इंकलाबी दोनों विचारधाराओं ने बड़ा योगदान दिया। आजादी के लिए महज हथियारबंद लड़ाई ही जरूरी नहीं होती बल्कि जनचेतना का मजबूत होना भी जरूरी होता है। महात्मा गांधी ने बिना हथियारों के आजादी की लड़ाई जीती थी? या शहीद भगत सिंह गलत थे या सावरकर गलत थे? ऐसी बातें समाज, राजनीति और समकालीन परिस्थितियों के यथार्थ को नजरअन्दाज करने वाले लोग ही कह सकते हैं।
देश भक्तों पर राजनीतिक ठप्पे लगाने की बजाय खुले दिल व गहरे चिंतन की जरूरत है, दरअसल हमारी छात्र शक्ति दिशाहीन हो गई है, जिसे संभालने के लिए राजनीतिज्ञों ने जरा भी परवाह नहीं की बल्कि अपने-अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए इस टकराव का जी भर कर इस्तेमाल किया व उसे पनपने दिया। छात्र शक्ति का टकराव साधारण नहीं बल्कि यह पूरे समाज में टकराव का कारण बन रहा है। वर्तमान घटनाएं चिंता का विषय हैं। राजनीतिज्ञ देश हित में युवाओं को गुमराह करने की बजाय उनको देश के निर्माण में योगदान देने के काबिल बनाएं।